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Monday, December 31, 2012

वादा

मैं आज खुश हूँ लेकिन खुश नहीं हूँ,
बहुत जल्दी खुश हो जाती हूँ,
जितनी जल्दी रोती हूँ,
हंस भी उतनी तेजी से देती हूँ।
मैं "इंसान" हूँ।

मैं शायद कुछ भी नहीं,
शायद बहुत कुछ हूँ,
मुझे सब समझ नहीं आता,
लेकिन समझती हूँ,
मैं "कोशिश" हूँ।

मैं गुस्सा होती हूँ,
मैं सवाल करती हूँ,
मेरे पास कोई जवाब नहीं,
लेकिन ढूँढती हूँ,
मैं "विशवास" हूँ।

मैं प्यार करती हूँ,
मैं नफरत भी हूँ,
डर लगता है,
लेकिन डरती नहीं हूँ,
मैं "साहस" हूँ।

मैं फिल्म देखती हूँ,
मैं चौक पे बैठती हूँ,
मैं नारे लगाती हूँ,
कुछ बदलना चाहती हूँ,
मैं "बदलाव" हूँ।

मेरे कई अज़ीज दोस्त हैं,
मैं अकेली हूँ,
क्रन्तिकारी नहीं मैं,
पर क्रांति चाहती हूँ,
मैं "आशा" हूँ।

मैं गलत हूँ,
शायद सही भी हूँ,
भूल जाती हूँ,
लेकिन काफी याद रखती हूँ,
मैं "धैर्य" हूँ।

मैं असली हूँ,
कुछ कहानी भी हूँ,
थोड़ी बुड़बक हूँ,
लेकिन काफी शयानी हूँ,
मैं "आम" हूँ।

मैं तुझे न भूलने का वादा हूँ,
मैं "तू" हूँ।

Sunday, December 30, 2012

शामिल हो!


ए मेरे दोस्त अब शामिल हो
ये लड़ाई नहीं उसकी उनकी,
न चंद लम्हों का रहम है
न कुछ लोगों का वेहम है
यह नहीं सियासी सीढ़ी की
यह आवाज़ है आने वाली पीढ़ी की।

ये आजादी की उल्हास हवा
मेरे साँसों में जन्मी
अब तेरे नारों पे पलती
इसकी बिहोश वो अवस्ता
है तेरी मेरी ही गलती
चल बहुत हुआ आराम हराम
क्या रक्खा है?
गिला शिकवा और गाली मैं
आबरू की किसी को क्या परवाह
अब रक्त बहता है नाली मैं
निकल बाहर, आवाज़ उठा, अब बहुत हुआ।

देश में एक स्वतंत्र हवा,
लोकतंत्र की लहराई है,
किया बहुत आराम तूने
भूतकाल की मर्दानी कुर्सीयों पे ,
बहुत दी गालिया धूर्त नेताओं को,
चल आज उन्हें डराया जाए, धमकाया जाए,
हम हैं! ये बताया जाए।
तेरे बिना हम अधूरे है,
चल आज मिल के धूप मैं चला जाए।

चल अब उठ! अब हम सारे जायेंगे
हर शहर मैं इंडिया गेट होगा
कानूनी व्यवस्ता से नहायेगे
चल उठ अब चल बस हुआ बहुत
आलस छोड़, छोड़ अब गद्दी
गत्था कागज़ मोटी कलम उठा
पोस्टर बना, नारे लगा।
हम गायेंगे, गुनगुनायेंगे,
धुप मैं अँधियारा जलाएँगे।
ये धुप भी लगेगी सुहानी,
हम उस सुबह का आगाज़ होंगे, जो करेगी
स्वागत तेरी बेटी का, मेरी बहन का।
जिसमे मासूमो का खून न बहेगा,
न भूखा रोयेगा एक भी बच्चा,
न रोड ने नाम पे खड्डे होंगे,
न एक भी किसान फांसी लगाएगा,
न तेरा सांस लेना दुर्भर होगा तेरे शहर मैं,
न तेरे खून पसीने को बेच के नेता खायेगा।
ये लड़ाई नहीं सिर्फ किसी औरत की,
ये है तेरी बीवी, मेरी माँ, उसकी बहिन की,
ये है गरीब किसान की,
ये हैं मजदूर इंसान की,
ये है नौकरी पेशा लड़के की,
ये है बेरोजगार एक कड़के की,
ये लड़ाई है तेरी और मेरी।
तू शामिल हो के तेरे बिना हम अधूरे हैं,
तू साथ दे, के तू मैं हूँ और मैं तू है।
ये लड़ाई है जागने की, जगाने की,
हर बड़े-छोटे अत्याचार पर आवाज़ उठाने की,
ये लड़ाई है तेरी झूठी सुरक्षा जझ्कोरने की,
ये लड़ाई है मेरी नींद तोड़ने की।
हम सारे मिलकर आयेंगे
बहन, बेटी चल चल अब उठ
अब अपनी कलाई खुद राखी बाँध
रस्सी उठा चूड़ी छिपा।
चल बस बहुत हुआ।
अब पिता, भाई, पति और बेटा
अपने हाथो मेरा श्रृगार करो
के जितनी मैं भीतर सुन्दर हूँ
उतनी ही सुन्दर मैं बाहर लगूं
खोलो वो घर के किवाड़
मुझ को बाहर निकलने दो।
कल मत पछताना जब सो जायगी
ये आवाज़ तेरे अलसाये चेहरे की बदोलत,
जब घर चले जायेंगे ये लोग, जो उतरे है आज सडको पे
पगलाए है, भन्नाए है, इनका मजाक न उड़ाना
व्यंग न कसना, काट खाएगी तेरी आराम कुर्सी
तुझे ही।
अब तो विदेशों मैं भी वर्किंग वीसा मिलना मुश्किल हो गया है।
तब न कहना के आवाज़ नहीं दी थी।
तू है तो हम पूरे है, नहीं तो हम अधूरे है।

एक स्वर मैं एक नारा
हर कदम पे देश हमारा।

Saturday, December 29, 2012

गुजारिश

                                      

कल मेरा भी बलात्कार होगा,
और पटक दिया जाएगा मुझे रोड़ के बीचो-बीच।
तब क्या बैठोगे यूँही चुप तुम?
जब मेरा मुह बल्र कर के टी-वी पे दिखाया जाएगा,
और मेरे माँ बाप से पुलिस करेगी सवाल,
क्या तुम्हारी बेटी का चरित्र तो ख़राब नहीं  था?
क्या कर थी तुम्हारी बेटी दिल्ली मैं रात ग्यारा बजे?
अकेली क्यूँ थी?
ऐसे-वैसे कपड़े क्यूँ पहने थे?
कहीं उसने बलाताकारियों को आकर्षित करने की कोशिश तो नहीं की?
क्या जवाब देंगे वो? 

क्या तुम रो ना पड़ोगे मेरी खातिर?
क्या नहीं उतर रोड़ पे आओगे?
क्या दोगे अपना थोड़ा  कीमती समय?
क्या दोगे मेरे माँ-बाप का साथ? 
या बैठोगे यूँही चुप? एक दम चुप।
अपनी आराम  कुर्सियों मैं धसे हुए।

तुम आना, शोर मचाना, जला देना ये पुलिस थाने!!
तोड़ देना ये मैली खादी की इमारते!! 
तुम आना जरुर। 
क्यूंकि तुम भी अब ज्यादा देर सुरक्षित नहीं!


Wednesday, December 26, 2012

हैप्पी न्यू इयर!

फोटो: प्रकाश रे 
नया साल आ रहा है,
एक नयी शुरुआत भी हो रही है,
अभी तो अंकुर फूटा है ….
तुम्हे इसे सींचना होगा,
मेहनत लगेगी और देर भी,
तुम विशवास ना खोना, निराश ना होना,
इसे मुरझाने न देना।

ये लड़ाई सौ-पचास लड़कियों की नहीं है,
ये पूरे समाज की है, पूरे सिस्टम की है, हर घर की है,
बदलना सिर्फ सरकार को नहीं है, हर घर को है,
हर उस सोच को है, जो लड़की को संपत्ति समझती है,
कभी बाप की, कभी भाई की, कभी पति की, तो कभी बेटे की,
उस टोकरे को लड़कियों के सर से हटाना है,
जो रख दिया गया है, कभी इज्ज़त तो कभी सम्मान के नाम पे।
अब इस बोझ को उतार कर दम लेना।

मैं मानती हूँ, खाली अनशन पे बैठ जाने से,
या सिर्फ काले बिंदु लगाने से, फांसी पे लटकाने से,
या सख्त कानून बनाने से, सब समस्याएँ हल नहीं होंगी।
पर मैं तह दिल से स्वागत करती हूँ इस नई बोली का,
इस नए जज्बे का, इस प्रोटेस्ट का,
ये शुरुआत है, और कहीं न कहीं से तो होनी ही थी,
अब इसे बुझने न देना।

पार्टीज करना पर प्रोटेस्ट भूल ना जाना,
डिस्कोथेक़ जाना पर नारे भूल ना जाना,
ये जिम्मेदारी ली है तो जिम्मेदारी निभाना।
इस शुभ शुरुआत को अंजाम तक ले जाना,
नया साल आ रहा है,
एक नयी शुरुआत भी हो रही है,

हैप्पी न्यू इयर!



शुरुआत

                          


हाँ, मैं वीक-एन्ड प्रोटेस्टर हूँ,
पर मैं जागा हूँ, सोया था सदियों आज जगा हूँ,
हाँ मैं बस एक काला बिंदु हूँ,
पर मैं एक शुरुआत हूँ।

हाँ, मैं पांच दिन ऑफिस जाऊँगा,
और दो दिन इंडिया गेट पे बैठूँगा,
हाँ मैं कूल हूँ, हाँ मैं प्रोटेस्टर हूँ,
मैं शुरुआत हूँ नए कल की।

हाँ, मैं फेसबुक प्रोटेस्टर हूँ,
कुछ दिनों से मैं एक नया आदमी हूँ, 
मैं सोचता हूँ महिलाओं के बारे मैं,
उनकी आज़ादी और सुरक्षा के सवाल पर मैं विचार करता हूँ,
मैं शुरुआत हूँ नए भारत की।

एक नयी सोच का जन्म हुआ है,
हाँ मेरा दिमाग भन्ना गया है,
हाँ मैं स्पीच्लेस हूँ, मैं चुप हूँ,
पर सोया नहीं हूँ, सतर्क हूँ, जगा हूँ,
मैं शुरुआत हूँ एक नए समाज की।

हाँ मैं मुझे डर लगता है,
मुझे पुलिस से डर लगता है, डंडो से भी डर लगता है,
मैं सरकारी मुलाजिम हूँ, डरा तो हूँ   
पर मैं बेहोंश नहीं हूँ, मैं जगा हूँ,
मैं शुरुआत हूँ एक बराबर समाज की।

Friday, December 21, 2012

षड़यंत्र


शुरुआत तो सीता ने की थी, मूक बन जाने की, 
न छिनने की अपना हक, चुपचाप धरती मैं सामने की।
रही सही कसर पूरी की राधा ने, एक रसीले को भगवान बनाने की,

अरे अब तो ये षड़यंत्र समझ जाओ, 
छोड़ पाँव विष्णु के लक्ष्मी, कभी तो तुम भी आराम फरमाओ।
बड़ी चालाकी से गुलाम बनाया गया है स्त्री तुझे,
दे धरम का नाम, गुलामी पाठ पढाया गया तुझे।

बहुत बनी शहनशील, क्षमावान, बलिदानी,
क्या मिला? लुटी आबरू अपने ही बगीचे मैं।
बेच दिया भाई ने, बाप मुछो पे ताव देता खड़ा है,
कोन खरीदेगा तेरी बोली है, बाज़ार मैं झगड़ा है।

माना के गुस्सा बहुत है, खून का रंग अभी तक है लाल,
तो तोड़ ये जेवरों के बेड़िया, गुलामी के सब यंत्र जलाओ।
अरे आवाज़ उठाओ, चिल्लाओ, कुछ तोड़ फोड़ मचाओ,
बहुत कर लिया करवा-चौथ, अब तांडव नाच दिखाओ।

फ़ेंक दो ये सीता, राधा, मीरा अपने मंदिरों से,
अब काली को अपनाओ, अब दुर्गा को ले आओ।

Wednesday, December 19, 2012

To the Other World


Struggling. I swallow, my
Head heavy spins,
No familiar sight, I feel
Fear. Bitter salt.
Oh swelling monster.
Stop.
Thumping, heavy, pushing
Air.

Flashes, children playing walking firm
Green, shoes running running running
Solid ground, umber, red familiar
I see tea-cookies, stomach soft
I hide.
Silver light blinding
I gasp. Air.

Air plenty, Sun warm breeze
I see white beard, soft lifts
We laugh.
Yellow light soft Green air
Hills, train, stretches of sand,
His lips soft, warm
I gasp. Air.

Birdie pink, soft blue sky
Fluttering butterflies,
Colors many caressing silky
A hand holds me. I breathe and fly
I see White.
I don’t gasp.
Puffed. I was afloat.

I hear them say, “She drowned yesterday”.


लड़की

अगर भ्रूण हत्या सिर्फ़ इसलिए ग़लत है, के पुरषो को पत्नी नही मिलेगी तो ये सोच ग़लत है.
अगर लड़किया सिर्फ़ समाज को बॅलेन्स बनाने के लिए चाहिए तो ग़लत है.
कोन आदमी या औरत अपनी लड़की की हत्या सिर्फ़ इसलिए करता के वो एक लड़की है?
ये समाज़ है ग़लत, तुम और मैं हैं ग़लत, ये परिवार का ढाँचा है ग़लत, ये कामन सोच है ग़लत.
सिर्फ़ ये दिखाने से के लड़कियो की हत्या किस मार्मिक ढंग से होती है,
या ये "समाज" के लिए कितना हानिकारक है,
लोगो को रुलाना या डराना इस समस्या का हल नही.
इस जलील काम को अंजाम देने पे जो मजबूर करता है
उस ढाँचे को बदलना की ज़रूरत है, बदलना है
उस ग़रीबी को जिसमे दो वक्त की रोटी नसीब नही,
उस गाव को जिसमे बिजली, पानी उपलब्ध नही,
उस स्कूल को जिसमे किताबें उपलब्ध नही,
उस सोच को जो आज भी लड़के को घर का चिराग मानती है,
उस बुड्ढे को जिसे जब तक बेटा आग ना दे मोक्ष नसीब नही,
उस आदमी की जो छप्पन कोठे चढ़ा और पत्नी "वर्जिन" चाहिए,
उस परिवार की जो लड़के की शादी मैं घर भर जाने सपने लेता है,
उस लड़के की जो क्लर्क लगते ही होंडा सिटी के सपने लेता है,
उन छिछोरी गलियों की जिसमे क्या मज़ाल लड़की अकेली गुजर जाए,
उन पोलीस अफसरों की जो आठ बजे के बाद रेप को "लीगल" मानते है,
उन लोगो को जो सत्यमेव जयते देख कर अपने आप को समाज सुधारक मानते है

मज़ाक तो हम हैं

ऐसी क्या बात करते हो, गंदे मज़ाक करते हो?
यूँ महान नेता की मौत पे कटाक्ष कसते हो.
अब कोन बचाएगा हमे बहारियो(आउटसाइडर्स०) से,
नौकरियाँ हुमरी वो सब ले जाएँगे,
भूखे मरेंगे हमारे बच्चे ओर वो जलेबी खाएँगे!
कोन जलाएगा सनीमा घरो को, जब वो अपतिजनक फ़िल्मे दिखाएँगे?
अब तो शायद पाकिस्तानी भी भारत खेलने आएँगे!!
"हिट्लर वाज़ ए गुड मॅन", कोन हमे सिखाएगा?
अब तो इडली सांभर का रेट रातो रात बढ़ जाएगा!
"मुंबई बिलॉंग्स तो एवेरिवन", कहके अब तो तेंदुलकर भी बच जाएगा!
जया आंटी खूब हिन्दी मे बतलाएँगी, टॅक्सी ड्राइवेरो के साथ मीटिंग बिठाएँगी,

ऐसी क्या बात करते हो, गंदे मज़ाक करते हो?
मॅनर्स नही हैं तुम्हे, मौत के बाद हर आदमी महान होता है, (पोंटी चड्डा वाज़ आन एक्सेप्षन)
जो करे भीड़ इखॅटी, उसी का सम्मान होता है!
क्या हुआ जो वो लोकशाही नही शिवशाही के पक्ष मैं थे, (अटलीस्ट हे वाज़ ऑनेस्ट अबाउट इट)
डेमॉक्रेसी तो अपने आलोचको को ही तिरंगा ऊढाती है.
दे इक्कीस बंदुखो की सलामी, टाइगर उसे बनती है.

बंद करवादे जो शहर मर कर भी, वो आदमी महान होता है,
इस देश मैं मेरे दोस्त शक्तिशाली का सम्मान होता है!
रीड की हड्डी मैं बचपन से ही शिकायत थी,
गुंगे तो है ही, बस बहरा होना बाकी है.  

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एक परिवार चला सर अपना मकान रख,
ये उसकी ज़ॅमी नही.
एक माँ चली अपनी जनी छोड़,
उसके चुहले मैं धुआँ नही.
एक देश मैं उड़ गये चिथड़े हाड़ मास के,
अपना वतन अपना नही.
एक बाप बैठा हाथ मैं एक हाथ उठाए,
कब पार्क मैं फटा बम्ब पता नही.

मैं अपनी बैठी अपनी बैठक मैं,
सोचती हूँ एक २ बि.एच.के फ्लॅट मैं इस साल इनवेस्ट कर दू,
एक दो एफ.डी कर दू तो थोड़ी सेक्यूरिटी हो जाएगी.
फिर कुछ विचार कर अपना स्टेटस अपडेट कर देती हूँ,
"आइ हेट वाय्लेन्स, वाइ कांट पीपल स्टॉप फाइटिंग"
जब तक पार्लर से वापस आई,
२०-२५ लाइक आ गये.
आज दिन बड़ा अच्छा था.

Tuesday, December 18, 2012

बहुत हुआ


उठा ले आज बंदूख, के बस बहुत हुआ
बड़ी शरम हुई, बड़ा लिहाज़ हुआ.

जंगल राज है यहाँ, कैसी सिविलाइज़ेशन?
दे काट जो आगे बढ़े के बस बहुत हुआ.

मार बेटी अपनी, बाप इज़्ज़तदार बना,
नंगा कर घुमाई लड़की, गाँव हया का ठेकेदार बना.

पैदा हुई नही के मार दिया, धरम किया?
खरीदी बीवी ५०० टके मैं, लड़की हुई फिर मार दिया.

उठा ले आज बंदूख, के बस बहुत हुआ
बड़ी शरम हुई, बड़ा लिहाज़ हुआ.

ना सुन, ना समझ, अब ख़ूँख़ार बन,
कर संघार आज असुरो का, बन काली के बस बहुत हुआ.

पछाड़ दे आज रावण को खुद, के राम नपुंसक हुआ,
बन सीता अब तू दुर्गा के बस बहुत हुआ.

जांग आज तू दुर्योघन की द्रौपदी चीर दे,
बस पांडुओं ने जुआ बहुत खेल लिया.

उठा ले आज शस्त्र हाथ मैं,
के बस बहुत हुआ!