वो एक परी से कम नहीं है।
मेरे तहसनहस घर को रोज समेटती है,
सब्जी दूध धसे बर्तन जिनको देखने का मन न करता,
रोज उन्हें चमकाती है।
मैले कुचेले पसीने-धुल-धुए की सधांड मारते
कपड़ो को धोती है। वो परी ही तो है।
वो रोज़आती है 5 किलोमीटर पैदल चल,
गरीबी और उम्र ने कमर हालाँकि
झुका दी है, वो आती है फिर भी जरुर।
क्यूंकि उसको पता है, उसके बिना
मेरा हाल बेहाल ही होता है।
आते ही बनाती है चाय, कम चीनी की
और हम दोनों धुप मैं बैठ लेते है सुड़कीयाँ।
मैं उसे दीदी बुलाती हूँ, और वो मुझे अनु-दीदी।
वो रोज़ सुनाती है मुझे बाज़ार और संसार का हाल,
मैं अख़बार नहीं पढ़ती, मुझे बढती GDP रेट और
पर्तिशत की भाषा समझ नहीं आती।
मुझे समझ आती है उसकी भाषा,
आटे-दाल का भाव, और बढ़ते मिट्टी-तेल के दाम की मार।
वो बाटती है महंगे होते इलाज़-दवाइयों
का दुःख और पूछती है, "अनु दीदी ऐसे कैसे चलेगा?"
मेरा बड़ा मन होता उसको गले लगा कर बोलूं
दीदी आप तो मेरे पास ही रह जाओ।
दीदी की बेटी ने इसी साल कॉलेज मैं दाखिला लिया है,
कोमल बड़ी मेहनती है, और कभी घर आती है
तो मुझ से खूब बतियाती है। वो जल्द से जल्द घर
के खर्चे मैं हाथ बटाना चाहती है।
लेकिन अब दीदी की तबियत पहले जैसी नहीं रही,
वो जल्दी बीमार पड़ जाती है और कमजोर दिखती है।
आजकल हम दोनों काम बाट कर करते हैं।
वो झाड़ू लगाती है तो पोछा मैं लगा देती हूँ,
वो बर्तन धोती है तो मैं झाड़ देती हूँ।
एक दिन मैं अपनी बाल्कोनी झाड़ रही थी,
तो मेरी पड़ोसिन ने आवाज़ दी (पहले कभी हेल्लो भी नहीं बोल था)
"तुम्हारे पास "मैड" नहीं है क्या?" जब मैंने बताया के है
और वो दुसरे कामो मैं लगी है तो उसने मुझे
लाइफ के नियमो पे लेक्चर देना शुरू कर दिया,
"देखो "इन-लोगो" से ऐसे काम नहीं लेते,
ऐसे "ये-लोग" सर पे चढ़ जाते है।
वो हमारा पहला और आखरी वार्तालाप था।
लेकिन मेरे दिमाग मैं "वो-लोग" घूमते रहे।
मैं सात साल से दीदी को जानती हूँ और वो मुझे जानती है,
वो मेरे लिए "इन-लोग" से कही बढ़कर है।
वो पहला दिन जब उसने मेरे झूठे बर्तनों को छुआ था,
और बनाया था मेरा बिस्तर। जब पहली बार परोसा था उसने मुझे
खाना, जब तह किये थे मेरे कपड़े और लगाया था अलमारी
मैं जचा कर। वो "वो-लोग" नहीं, मेरी सहेली है, मेरी जरुरत मेरा
रोज़ का इंतजार है।
कुछ दिन से दीदी के बेटे करण की तबियत ठीक नहीं है,
करण मिर्गी का मरीज़ है, लगभग आठ साल पहले
एक बार पूरा इलाज़ करवा चुकी है,
लेकिन दौरे फिर पड़ने लगे हैं।
CT स्कैन और MRI का खर्चा लगभग
छ: हज़ार है और डाक्टर का अलग।
उसके पास मेरी तरह बैंक-बैलेंस नहीं है,
वो महिना-दर-महिना कमाती है, और संतोष
करती है की वह कुछ और लोगो की तरह
दिन-दर-दिन नहीं कमाती।
कोई महीने के अंत मैं अनदेखी 100-500 की
जरुरत आन पड़े तो अपनी तनख्वा का
एडवांस मांग लेती है।
लेकिन इस बार वो हरबार से जयादा
परेशान है। उसका बेटा बीमार है और खर्चा बड़ा।
जब मैंने सुझाया के सरकारी हस्पताल
मैं तो मुफ्त इलाज़ होता है, तो वहां क्यूँ नहीं जाती।
तो दीदी की आँखे छलक आई, वो बोली,
अगर करण के पापा का इलाज सरकारी नहीं प्राइवेट
हस्पताल मैं होता तो शायद वो बच जाते।
मैं नहीं जानती की उसका विश्वास महंगे इलाज़ पर
कितना सही है और कितना गलत लेकिन
इस बार इलाज़ तो होगा, और महंगे
हस्पताल मैं ही होगा।
मैं इस बार घर फ्लाइट मैं नहीं ट्रेन
मैं चली जाउंगी।