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Friday, December 20, 2013

तैयार


मैं तैयार हूँ…..
फिर नया होने को।

भूला सब पुराना ज्ञान
मिटा सब मरियादे-मान
मैं फिर नया होने को तैयार हूँ।



तोड़ सब रिश्ते-नाते
भुला दोस्ती-दुश्मनी कि बाते
मैं फिर नया होने को तैयार हूँ।

क्या लिया-दिया, क्या खोया-पाया 
मिटा सब बही-खाते
मैं फिर नया होने को तैयार हूँ।

नए मौसम कि नयी शुरुआत
नए सिरे से शुरू करे बात
मैं फिर बदलने को तैयार हूँ।

मैं फिर नया होने को तैयार हूँ।


Tuesday, March 26, 2013

वंदना दीदी

वो एक परी से कम नहीं है।
मेरे तहसनहस घर को रोज समेटती है,
सब्जी दूध धसे बर्तन जिनको देखने का मन न करता,
रोज उन्हें चमकाती है।
मैले कुचेले पसीने-धुल-धुए की सधांड मारते 
कपड़ो को धोती है। वो परी ही तो है। 
वो रोज़आती है 5 किलोमीटर पैदल चल,
गरीबी और उम्र ने कमर हालाँकि 
झुका दी है, वो आती है फिर भी जरुर। 
क्यूंकि उसको पता है, उसके बिना
मेरा हाल बेहाल ही होता है। 
आते ही बनाती है चाय, कम चीनी की
और हम दोनों धुप मैं बैठ लेते है सुड़कीयाँ। 
मैं उसे दीदी बुलाती हूँ, और वो मुझे अनु-दीदी।

वो रोज़ सुनाती है मुझे बाज़ार और संसार का हाल,
मैं अख़बार नहीं पढ़ती, मुझे बढती GDP रेट और 
पर्तिशत की भाषा समझ नहीं आती।
मुझे समझ आती है उसकी भाषा,
आटे-दाल का भाव, और बढ़ते मिट्टी-तेल के दाम की मार।
वो बाटती है महंगे होते इलाज़-दवाइयों
का दुःख और पूछती है, "अनु दीदी ऐसे कैसे चलेगा?" 
मेरा बड़ा मन होता उसको गले लगा कर बोलूं
दीदी आप तो मेरे पास ही रह जाओ।

दीदी की बेटी ने इसी साल कॉलेज मैं दाखिला लिया है,
कोमल बड़ी मेहनती है, और कभी घर आती है
तो मुझ से खूब बतियाती है। वो जल्द से जल्द घर
के खर्चे मैं हाथ बटाना चाहती है।
लेकिन अब दीदी की तबियत पहले जैसी नहीं रही,
वो जल्दी बीमार पड़ जाती है और कमजोर दिखती है।
आजकल हम दोनों काम बाट कर करते हैं।
वो झाड़ू लगाती है तो पोछा मैं लगा देती हूँ,
वो बर्तन धोती है तो मैं झाड़ देती हूँ।

एक दिन मैं अपनी बाल्कोनी झाड़ रही थी,
तो मेरी पड़ोसिन ने आवाज़ दी (पहले कभी हेल्लो भी नहीं बोल था)
"तुम्हारे पास "मैड" नहीं है क्या?" जब मैंने बताया के है
और वो दुसरे कामो मैं लगी है तो उसने मुझे
लाइफ के नियमो पे लेक्चर देना शुरू कर दिया,
"देखो "इन-लोगो" से ऐसे काम नहीं लेते,
ऐसे "ये-लोग" सर पे चढ़ जाते है।
वो हमारा पहला और आखरी वार्तालाप था।

लेकिन मेरे दिमाग मैं "वो-लोग" घूमते रहे।
मैं सात साल से दीदी को जानती हूँ और वो मुझे जानती है,
वो मेरे लिए "इन-लोग" से कही बढ़कर है।
वो पहला दिन जब उसने मेरे झूठे बर्तनों को छुआ था,
और बनाया था मेरा बिस्तर। जब पहली बार परोसा था उसने मुझे
खाना, जब तह किये थे मेरे कपड़े और लगाया था अलमारी
मैं जचा कर। वो "वो-लोग" नहीं, मेरी सहेली है, मेरी जरुरत मेरा
रोज़ का इंतजार है।

कुछ दिन से दीदी के बेटे करण की तबियत ठीक नहीं है,
करण मिर्गी का मरीज़ है, लगभग आठ साल पहले
एक बार पूरा इलाज़ करवा चुकी है,
लेकिन दौरे फिर पड़ने लगे हैं। 
CT स्कैन और MRI का खर्चा लगभग 
छ: हज़ार है और डाक्टर का अलग।

उसके पास मेरी तरह बैंक-बैलेंस नहीं है,
वो महिना-दर-महिना कमाती है, और संतोष 
करती है की वह कुछ और लोगो की तरह 
दिन-दर-दिन नहीं कमाती। 
कोई महीने के अंत मैं अनदेखी 100-500 की 
जरुरत आन पड़े तो अपनी तनख्वा का 
एडवांस मांग लेती है।

लेकिन इस बार वो हरबार से जयादा 
परेशान है। उसका बेटा बीमार है और खर्चा बड़ा।
जब मैंने सुझाया के सरकारी हस्पताल 
मैं तो मुफ्त इलाज़ होता है, तो वहां क्यूँ नहीं जाती।
तो दीदी की आँखे छलक आई, वो बोली,
अगर करण के पापा का इलाज सरकारी नहीं प्राइवेट 
हस्पताल मैं होता तो शायद वो बच जाते।

मैं नहीं जानती की उसका विश्वास महंगे इलाज़ पर 
कितना सही है और कितना गलत लेकिन 
इस बार इलाज़ तो होगा, और महंगे 
हस्पताल मैं ही होगा।
मैं इस बार घर फ्लाइट मैं नहीं ट्रेन 
मैं चली जाउंगी।

Wednesday, January 9, 2013

जंग

मुझे भी जंग पसंद होती,
गर इससे समस्याएं हल होती,
ना मासूम होते कुर्बान,
ना होते गाँव वीरान,
ना बाप लिए होता अपने बच्चे की लाश,
ना माँ टटोल रही होती लाशें
करती अपने की तलाश।

मुझे भी जंग पसंद होती,
गर इससे समस्याएं हल होती,
ना जलते शहर, ना उजड़ते घर,
ना दिन मैं अँधेरा छाता,
ना सुबह गुम हो जाती,
ना शहीद होते जवान,
ना मानते मातम गाँव।

मुझे भी जंग पसंद होती,
गर इससे समस्याएं हल होती।

जले तेरे-मेरे चुहले मैं आग,
तेरे देश मैं भी खुशाली हो,
बजने दे शहनाई मेरे गाँव मैं,
तेरे खेत मैं भी हरयाली हो।
फूक दे ये मंदिर माश्जिद,
लाखो को इसने फूका है,
आ गले लगे के
हम इंसान के बच्चे हैं।
मेरा मुझ से विश्वास उठने लगा है,
बचा ले मुझे,
हम दोनों का भला है।

मुझे भी जंग पसंद होती,
गर इससे समस्याएं हल होती।

जंग तो खुद एक समस्या है,
क्या ये समस्याओ को हल देगी?

Monday, January 7, 2013

पागल

ना ना ना मैं नहीं मानती,
हो ही नहीं सकता,
मुझे तुम्हारी बातो पे विश्वास नहीं,
मेरा भाई जिसकी कलाई पे बाँधी राखी,
हर साल। वो किसी और की बहन का मांस
नोच खायेगा?

तुम झूठ बोलते हो,
ये जरुर तुम्हारी कोई चाल है।

ना ना ना मैं मान ही नहीं सकती
हो ही नहीं सकता,
मेरा बेटा जिसको मैंने जन्म दिया
दूध पिलाया, वो किसी और
की बेटी के खून मैं
नहायेगा?

तुम झूठ बोलते हो,
ये जरुर तुम्हारी कोई चाल है।

पागल हो गए हो गए हो क्या?
इंसान हैं, 
कोई हैवान थोड़े ही हैं।

बंद कर दो ये झूठी ख़बरे,
जाओ अपने अपने घर . …..
जाओ जाओ, सब जाओ।
सुनते ही नहीं,
पागल हैं सब के सब।  

Sunday, January 6, 2013

शर्म

मेरी बहन जब लौटती है स्कूल से,
कुछ लोग उसे मिलते हैं,
एक गाता है, "आजा मेरी गाड़ी मैं बैठ जा"
दूसरा "फुद्दी तेरी आज मैं लेके जाऊ,  ना लित्ती तो जट ना कवाहूँ"
तुझे आज ये सुनने मैं शर्म आ रही है?
वो रोज़ ये सुनती है,
और चुपचाप गुजर जाती है,
आँखे नीची कर,
घर आके रोने के लिए।

एक मुठ मारता है,
उसको देख के हिलाता है,
कभी आँख मारता है,
कभी चोंटी काट के चला जाता है,
तुझे आज ये सुनने मैं शर्म आ रही है?
वो रोज़ ये देखती है,
न बोलती है,
न चिल्लाती है,
घर आके रोने के लिए।

जब एक दिन उसने किया विरोध,
अपनी चौदह साल की आवाज़ मैं,
तो पकड़ लिया हैवानो ने,
बोले आज सबक सिखायेंगे,
नोच लिया मेरी बच्ची को,
खा गये उसका नाज़ुक मॉस,
पि गए उसका कुवारा खून।
और फेंक दिया सड़क के बीचो-बीच।

इस बार वो घर ना आ पाई,
ना रो पाई रख मेरी,
गोदी मैं सर।

अब बता मुझे, क्या बैठू चुप मैं,
और मान लू गलती अपनी बहन ही,
क्यूँ गयी थी स्कूल?
या क्यूँ हुई थी पैदा?
अब ये सब तो होता ही रहता है।
या बंदूख उठाऊ और मार दू,
कर दू एक एक को छलनी?
मुझे बता मैं क्या करूँ?
क्यूंकि ये सरकार मुझे,
फांसी देने मैं देर न लगाएगी।
Such is Justice in our Country.

माफ़ी चाहूंगी कविता प्रेमियों से, के इस कदर गिर गयी मेरी कविता। पर कहाँ से लाऊं वो सुन्दर शब्द, कहाँ ये लाऊं वो हंसी वादियाँ ….. मुझे आई शर्म लिखने मैं, तू पढ़ के शर्मा …. पर क्या आएगी आएगी शर्म उनको, जिनको शर्मसार करने के लिए ये पैदा हुई?

तीन यार

होड़ लगी है नेताओ की,
गर तू मुर्ख तो मैं धूर्त,
गर तू डायन तो मैं पिशाच,
पीता है तू खून जनता का,
मैं खाता हूँ हाड़ मांस।

चल लूट ले इनको बर्बाद करे,
मिल बैठेंगे फिर तीन यार!
वो बोल दे "dented-painted",
मैं बोल दूंगा "ऊँची स्कर्ट",
तू कह देना "लक्ष्मण रेखा",
मैं कह दूंगा "western-culture",
वो बोल देगी बड़ी हैं "adventerous",
वोट तो हम मैं से किसी को देंगे (हुहहहाहा)
फिर मिल बैठेंगे तीन यार!
खादी, खाखी, धर्म।