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Sunday, January 6, 2013

शर्म

मेरी बहन जब लौटती है स्कूल से,
कुछ लोग उसे मिलते हैं,
एक गाता है, "आजा मेरी गाड़ी मैं बैठ जा"
दूसरा "फुद्दी तेरी आज मैं लेके जाऊ,  ना लित्ती तो जट ना कवाहूँ"
तुझे आज ये सुनने मैं शर्म आ रही है?
वो रोज़ ये सुनती है,
और चुपचाप गुजर जाती है,
आँखे नीची कर,
घर आके रोने के लिए।

एक मुठ मारता है,
उसको देख के हिलाता है,
कभी आँख मारता है,
कभी चोंटी काट के चला जाता है,
तुझे आज ये सुनने मैं शर्म आ रही है?
वो रोज़ ये देखती है,
न बोलती है,
न चिल्लाती है,
घर आके रोने के लिए।

जब एक दिन उसने किया विरोध,
अपनी चौदह साल की आवाज़ मैं,
तो पकड़ लिया हैवानो ने,
बोले आज सबक सिखायेंगे,
नोच लिया मेरी बच्ची को,
खा गये उसका नाज़ुक मॉस,
पि गए उसका कुवारा खून।
और फेंक दिया सड़क के बीचो-बीच।

इस बार वो घर ना आ पाई,
ना रो पाई रख मेरी,
गोदी मैं सर।

अब बता मुझे, क्या बैठू चुप मैं,
और मान लू गलती अपनी बहन ही,
क्यूँ गयी थी स्कूल?
या क्यूँ हुई थी पैदा?
अब ये सब तो होता ही रहता है।
या बंदूख उठाऊ और मार दू,
कर दू एक एक को छलनी?
मुझे बता मैं क्या करूँ?
क्यूंकि ये सरकार मुझे,
फांसी देने मैं देर न लगाएगी।
Such is Justice in our Country.

माफ़ी चाहूंगी कविता प्रेमियों से, के इस कदर गिर गयी मेरी कविता। पर कहाँ से लाऊं वो सुन्दर शब्द, कहाँ ये लाऊं वो हंसी वादियाँ ….. मुझे आई शर्म लिखने मैं, तू पढ़ के शर्मा …. पर क्या आएगी आएगी शर्म उनको, जिनको शर्मसार करने के लिए ये पैदा हुई?

2 comments:

ReachingOut said...

No need to be apologetic for use of harsh words, Anuradha. The roads and streets are overflowing with these anyway. I feel so unsafe in this society and can only say please continue with your bitter attitude.

Anonymous said...

Too bold anuradha ji
Salute to this kind of creations
Hats off