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Friday, March 6, 2015

चरित्रहीन



ऐसे ही रात-दिन, बेटेम, बेमतलब घूमूंगी
ऐसे ही गंदे गंदे कपड़े पहन के, अधनंगे
हँसूंगी, जोर जोर से, बेशर्मी से खिलखलाऊँगी
और जाउंगी साथ और अकेले, जो करेगा मन
जैसा करेगा मन।


समंध बनाऊँगी, जायज़, नाजायज़
जिससे चाहूंगी।
तेरी रिच संस्कृति का ढोल बजाउँगी।
लज़्ज़ा की फिरकी बना के घुमाऊँगी
फ़िरूँगी चरित्रहीन।

समाज को तूने नाम दिया, तेरा होगा। थू।
शहर को तूने बनाया, तेरा होगा। थू।
देश भी तू रख। थू।
कानून भी रख। थू।
रख तू अपने पास!! रख।

ये धरती समूची मेरी है।
ये आसमान समूचा मेरा है।
मैं चलूंगी। मैं उड़ूँगी। मैं फ़िरूँगी।
चरखी बन के। मदमस्त।
देख तो। देख। पास तो आ।
आ। आ। आ।

जहरीला फूल हूँ, सूंघ भी नहीं पाओगे,
एटम बम हूँ, हाथ भी ना लगा पाओगे
हो जाएंगी छित्तर-बित्तर तेरी आँतड़ियां
तेरी आँख, तेरी जीभ, तेरी उँगलियाँ
धरती की धुल में। 

Sunday, February 1, 2015

'"अच्छी" लड़कियां

वो २२ साल कि इतालियन लड़की अकेली इंडिया आई थी। रमोना को भारतीय लड़के बहुत पसंद थे और उसे अपनी पसंद बताने में कोई झिझक ना थी। वो अब तक आधी दुनिया घूम चुकी थी, बार-या-कैफ़े में काम कर अपना घुमाई खर्च निकालती और बेझिझक अपनी ब्राउन लड़को कि चाहत को एक्सप्रेस करती और मैं बस उसे एकटक सुनती। मैं उस समय अठरह साल कि थी, और मुझे कहीं ख्याल भी ना थ के उसकी रोमांचक बाते सुनते सुनते एक दिन मैं उसकी तरह एकदम अकेले दुनिया घूमूंगी।

रमोना उन लोगो में से थी जो शायद बहुत थोड़े से समय में आपकी जिंदगी का बड़ा सा हिस्सा बन जाते है। ठीक दस साल हो गए हैं मुझे उससे से मिले, उसकी याद आज भी उतनी ही ताज़ा है और शायद हमेशा रहेगी। मेरे जीवन के सफर को उस बित्ती भर कि, चहकती, मचलती लड़की ने एक अलग दिशा में मोड़ दिया था। रमोना का और मेरा साथ महज़ दस दिन का था, वो फिरती मदमस्त और मैं उसे मुह खोले ताकती रहती। जब वो चली गयी तो ना कोई फ़ोन-कॉल, शायद एक-दो ईमेल हुए होंगे फिर वो भी खत्म। लेकिन वो मुझे अपना एक हिस्सा दे गयी, अपनी रूह दे गयी, अपनी एक आज़ादी का टुकड़ा दे गयी। वो चली गयी लेकिन उसकी आज़ादी कि महक रह गयी।

रमोना से मेरी मुलाकात पूना में हुई, वो मेरे कुछ दोस्तों कि दोस्त थी और हम अक्सर उसके कैफ़े के टाइम के बाद यूँही बतियाते या घूमने निकलते। एक शाम हमने एम-जी रोड घूमने का प्लान बनाया, और रमोना को कैफ़े से लेने चले गए। रमोना को मेरे दोस्तों ने सब हिंदी गालियां सीखा दी थी, वो हमेशा हमारा स्वागत हिंदी में गलिओं कि बौछार से करती और फिर अपनी इटालियन एक्सेंट में कहती, "मेरी जान क्या चाहिए!" जवाब में लड़के दोस्त हमेशा कुछ ना कुछ ऐसा मांगते के वो कहती, "एव्री डॉग हस इट्स डे", और खिलखाले हुए उन्ही के कंधो पे हाथ रख मस्त चलती।

हमने उसे अपने एम-जी रोड घूमने का प्लान बताया तो वो फट से तैयार हो गयी, और बोली वो पूरे दिन काम करके थक गयी है और शावर ले के ही हमारे साथ चल सकती है। अब हमे पहले उसके घर जाना पड़ता और हमारी खाली-पिली कसरत हो जाती, तो मेरे दोस्त ने तपाक से कहा, "तुम तो ऐसे ही बहुत खूबसूरत हो, तुम्हे नहाने की कोई जरुरत नहीं।" मैंने भी कहा, "चलो ना बाद में आके नहा लेना।" यूँ दोस्तों कि जिद्द के आगे झुक जाना मेरे लिए बहुत छोटी बात थी। अपनी बड़ी से बड़ी इच्छाओं को औरो कि अपील के सामने भुला देना कोई बड़ी बात नहीं थी, फिर ये महज़ 'ना-नहाने' कि बात थी।

लेकिन उसने शायद अपनी इच्छाओं को सब से पहले रखना सीखा था, चाहे वो इच्छा अदनी सी क्यूँ ना हो। उसने कहा के उसका नहाना और सुन्दर दिखने में कोई कनेक्शन नहीं है, सुन्दर तो वो दस दिन ना नहाये तो भी दिखेगी। उसकी नहाने कि इच्छा से हमारा कोई तालुक नहीं है, और अगर हमें देर हो रही है हंम जाएं, वो बाद में आ जाएगी। इतनी हिम्मत! इतनी सीधी बात! कोई लड़की अपनी इच्छाओं को लेकर इतनी क्लियर कैसे हो सकती है, इतनी अस्सेर्टिव कैसे हो सकती है, मैं फिर एकटक थी। वो कभी कोई काम औपचारिकता वश नहीं करती, हम भारतीय, (लड़कियाँ खासकर) औरो की बात मान, अपनी जरूरते भूल जाती हैं, और फिर कोसते हैं, खुद को भी और दोस्तों को भी। ना औरो के हो पाते हैं, ना खुद के। और फिर वही पुरानी ब्लेम गेम, "मैंने तुम्हारे लिए ये किया, वो किया, फलाने के लिए ये करा, ढीमके के लिए ये करा" उसने क्या करा। अगर नहीं जी है तो मत करो, और करो तो फिर जाताना कैसा?
………

वो एक कमरे के माकन में रुकी थी, उसमे कमरे में उसका बैगपैक, और एक स्लीपिंग बैग भर था। वो सीधे गुसलखाने में घुस गयी, और ५ मिनट में तोलिया बाँध के निकली और फिर तोलिया खोल अपने गीले बाल झड़ने लगी। वो मेरे सामने थी, सिर्फ तोलिये में, वो भी सर पे। वो हमसे बात करती रही और कपड़े पहनती रही, उसके हाव-भाव में कपड़ो का होना या ना होना कोई फर्क नहीं डाल रहा था। लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं था, मेरा दोस्त जरुरत से ज्यादा शांत था, और मुझे उसकी आवाज़ सुननी बंद हो गयी थी।

वो मेरी हीरो थी। मेरा लक्ष्य इस जीवन में गाड़ी-बंगला बनाना नहीं, अपने शरीर के साथ, अपने इमोशन्स के साथ इतना कम्फ़र्टेबल होना था। 

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प्रियंका कि बात रह रह कर परेशान कर रही थी, "जीजी कुछ ना कुछ तो लड़कियों में भी कमी होगी, जो ऐसे लड़को को बर्दाश्त करती हैं।" सही बात है ब्रेकअप क्यूँ नहीं करती, अगर लड़का वॉयलेंट है या पसंद का नहीं है। मैं सोचती रही....... क्यूँ नहीं करती, क्यूँ पढ़ी लिखी समझदार होते हुए भी सहती जाती हैं?
लड़कियों का जरुरत से ज्यादा भावुक होना एक तरफ.…पर क्या भावुक होना इतनी बड़ी कमजोरी है, या कुछ और?
कल मैंने मरिसा से उसके ब्रेकअपस के बारे में पूछा, उसने कुछ यूँ मेरी आँख खोली, "मेरा जब भी ब्रेकअप हुआ तो जी खोल के रोई, माँ के पेट में सर छुपा के, पापा को सब बताया। रोड पे खड़े होके चीखी-चिल्लाई और आते-जाते लोगो तक से सहानुभूति ले ली। दोस्तों के साथ रात भर वाइन उड़ेली। घरवालों, दोस्तों, पड़ोसियों यहाँ तक के अजनबियों से सहारा मिला। कभी आसान नहीं था, कभी आसान हो ही नहीं सकता। लेकिन ये जरूर पता था के जितना दुःख ब्रेकअप में है, उससे कई गुना ज्यादा साथ में होता और होता रहता।"
लेकिन हमारे यहाँ तो दस में से आठ लड़कियां तो अफ़ेयर ही छुपाना पड़ता है, ब्रेकअप कैसे बतायें? और ख़ुशी तो छुप के अकेले में पलक झपकते बीत जाती हैं, गम अकेले नहीं बीतता। फिर हम अपने आप से लड़ते हैं, और अकेलेपन में ज्यादातर उसी आदमी के सहारे कि जरुरत महसूस करते हैं, जिससे भाग रहे होते हैं। और फिर और गहरे फंस जाते हैं, अपने ही बनाये चक्र्व्यू में। और वो डरावना "अकेलापन" जो दौड़ता है काट खाने को। और जो रह रह के सांस रोकता है, उसका क्या?
कितना आसान है हमारे देश में, अगर लड़की घर से दूर दूसरे शहर में काम करती है, अकेलेपन को हराना? जब रात को अकेले में रह रह रूकती हैं सांस, जब पुरानी यादे धीरे धीरे घोटती हैं गला। तब कितना मन करता है दौड़ जाएँ सड़क पर अकेले, और भर ले फेफड़ो में खूब सारी ठंडी ठंडी हवा। स्टार्ट करें बाइक और ले चले शिमला! जब तक चलाते रहे तब तक हाथ सुन्न ना हो जाएँ। ज्यादा नहीं तो इंडिया गेट तक तो चले ही जाएँ। लेकिन ये क्या, ये तो दिन छिप गया। अकेले जाऊं? या किसी को बुला लूँ? कपड़े भी तो बदलने पड़ेंगे, फिर वापस आते आते देर हो गयी तो। फिर बाहर जाना, ठंडी हवा कम हिसाब-किताब ज्यादा लगता है।
और दुनिया भर के जुज़ॅमेंट्स का क्या? इसको पता चल गया तो, उसने उसको बता दिया तो, वो क्या बोलेगे, ये क्या सोचेगा, पता नहीं किस-किस को बताएगा, मम्मी-पापा तक बात पहुँच गयी तो, ताऊ जी का लड़का भी तो वहीँ काम करता है, उसकी माँ मेरी बुआ कि सहेली है। वो फोटो का क्या? होने-वालों को भेज दी तो? और जाने कितनी ही बेफाल्तू कि इमेजिनरी चिंताएँ। और सॉलिड जजमेंट्स, "वो तो बड़ी फ़ास्ट है।" "ऐसी लड़कियों के साथ ऐसा ही होता है।" "ऐसी लड़कियाँ घर थोड़े ही बसाती हैं।" "निभाना थोड़े ही आता है इन्हें, थोड़ा बहुत तो कम्प्रोमाईज़ करना पड़ता है।" "ज्यादा फेमिनिस्ट बनोगी तो अकेली ही रहोगी।"
मन तो करता है "*#@$%^&*@!><@#$@"
काश हम भी रो पाते, यूँ खुल कह पाते अपने ब्रेकअप कि कहानी। जमा करते ब्रेकअप वीडियोस एक ही बक्से में, और हँसते रोते अपने-परायों के साथ। सोच रही हूँ भारत आके ब्रेकअप रीहैब खोल लूँ। ब्रेकअप मंत्र "दुनिया भर को दुःख बांटा, और जज करने वालों को बोला टाटा।"

चेक

"मॉडर्न तो ठीक है, आप तो कुछ ज्यादा ही फॉरवर्ड हैं।" "बोलना अच्छी बात है, पर जुबान लड़ाना।" हर चीज़ मर्यादा में अच्छी लगती है, और हंम मर्यादा के "दादा" हैं।
मॉडर्न येट ट्रेडिशनल होना है मुझे। और तुम डिसाइड करोगे के कितना परसेंट मॉडर्न चाहिए और कितना छोंका ट्रेडिशनल वैल्यूज का। इंग्लिश बोलना चेक। घरवालों के सामने सर पे पल्लू चेक। ओपन टू डेट चेक। वर्जिन चेक। अच्छी जॉब चेक। करवाचौथ चेक। सोशलाइसिंग स्किल्स चेक। खाना पकाना चेक। हनीमून पे मिनी स्कर्ट चेक। गाँव में दुप्पटा मंगलसूत्र चेक। सोशल ड्रिंकिंग चेक। नो स्मोकिंग चेक। पार्टी ऑर्गनाइसिंग स्किल्स चेक। बच्चे पालना चेक।
योर थिंकिंग चेक। माय फुट चेक।

हुआ कुछ यूँ

उत्तर भारत में एक गाँव था। कहने को तो गाँव में काफी खुशहाली थी लेकिन कुछ समय से वहां एक विचित्र समस्या घर कर गयी थी। वहां दिन ढलने के बाद लड़को का निकलना मुश्किल हो गया था। हर गली नुक्कड़ पे आवारा लड़कियाँ खड़ी रहती, आते जाते लड़को पर फब्तियाँ कसती, उन्हें भद्दे इशारे करती, और मौक़ा लगने पर चोंटी तक काट लेती। गांव के बस स्टॉप, पान कि दुकान, चाय कि दुकान, पंसारी यहाँ तक के पंचयात तक में उन्होंने अपना कब्ज़ा जमा लिया था। जब देखो, जहाँ देखो  लड़कियां ही खड़ी दिखती। एक-आध लड़का भूले-बिसरे वहां से चल गुजरता तो बस, सब उसपर लपक पड़ती। 

लड़को ने अकेले घर से निकलना तक बंद कर दिया था। खासकर के शाम के वक़्त तो हर जगह सिर्फ लड़कियां ही लड़कियां दिखाई पड़ती। जब लड़को का पूरा समय अंदर बैठ कर दम घुटने लगा तो कुछ हिम्मत वाले लड़को बाहेर जाने कि कोशिश कि। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, लड़कीयों ने लड़को को ऐसा सबक सिखाया के लड़के और भी भयभीत हो गए। आख़िरकार लड़को के माँ-बाप और कुछ शुभचिंतको ने पंचायत के सामने अपनी समस्या रखी, लेकिन ये क्या, पंचायत (जिसमे सब लड़कियां ही थी) ने लड़को का मोबाइल और टी-वी बंद करा दिया। 

गांव में एक ही कॉलेज था, उस कॉलेज के गेट पर लड़कियां सुबह सुबह दादी बन के खड़ी हो जाती, और आते जाते लड़को को परेशान करती। लड़को का गेट पे खड़े रहना तो दूर, कॉलेज के अंदर जाना तक दुर्भर हो गया था। लड़को के टाइट कपड़े देख लड़कियां और भी उत्तेजित हो जाती, और उनकी फिगर तो लेकर भद्दी बाते कहती थी। जब लड़को ने कॉलेज एडमिनिस्ट्रेशन से शिकायत कि तो, लड़को को ढंग के कपड़े पहनने के लिए कहा गया और एक ड्रेस कोड जरुरी कर दिया। अब कोई लड़का गर्मियों में छोटी बाजू का टी-शर्ट पहन के आता तो उसे वापस घर भेज दिया जाता। बात भी सही थी, माहौल ही इतना ख़राब था, सोच समझ के कपड़े पहनने चाहिएं। 

लड़को के माँ-बाप ने उन्हें सख्त हिदायत दे रखी थी के वो आँखे नीची कर के सीधा कॉलेज जाए और वापस घर आएं। कैंटीन में मस्ती करने की, खाली गेट पे तफरी करने कि या दोस्ती-यारी में जोर से हंसने या खिलखिलाने कि उन्हें बिलकुल मनाई थी। जोर से हंसता या गाना गाता लड़का लड़कियों को आकर्षित कर सकता था, और फिर तो आप सब जानते ही हैं के जमाना ख़राब हो चला था। जो लड़का इन बातो को नहीं मानता उसे "तेज" और "बुरे करैक्टर" के सर्टिफिकेट दिए जाने लगे। 

अब हर तरफ लड़को कि "इज़्ज़त" को खतरा था। और चूँकि घर कि इज़्ज़त लड़को के हाथ में होती है, लड़को के घरवालों ने अपनी "नाक" कि खातिर लड़को को घर में रखना शुरू कर दिया। यहाँ तक के शादी तक जल्दी कराने लगे। लड़को को सिखाया जाने लगा के, "लड़के खुली तिज़ोरी कि तरह होते हैं, अगर अपने को ढक के नही रखेंगे तो चोर की तो नज़र तो खराब होगी ही, जमाने को सुधारने से अच्छा है खुद को सुधारो। लड़के या आदमी को अपना शरीर ढक कर रखना चाहिए अगर इस हवसी दुनिया से बचना है।" और भी ऐसी अनेको बाते लड़को को समझाई जाने लगी, और सख्त नियम बनाये जाने लगे, के कैसे लड़कियों का शिकार होने से बचा जाए। शायद लड़कियों को समझाने का किसी ने सोचा ही नहीं, और छोटी लड़कियां बड़ो के देखा देखी में उन्ही जैसे बनने कि कोशिश करती। 

यहाँ तक के फिल्मों और नाटको में ऐसी ही लड़कि को हीरोइन बताया जाने लगा, जो लड़के के पीछे पड़ जाए, सीटी बजाये, आँख मारे, भद्दे कमेंट करे, और उसकी "ना" में भी "हाँ" ही सुने। और लड़के ऐसे ही अच्छे बताए जाने लगे जो अपने काम-से-काम रखें, आँख नीची कर के चले और आख़िरकार अपने घरवालों कि "नाक" कि खातिर अग्नि-परीक्षा दे डाले। अब छोटी लड़कियां टीवी पे ही अपने आइडियलस ढूंढ़ती और उनकी नक़ल करती, और क्यूंकि सीधे-सीधे लड़को से बात करना समाज ने बैन कर रखा था, वो फिल्मों से ही लड़को के बारे में जानकारी पाती। 

जब भी कोई लड़की किसी लड़के को तंग करती या उठा ले जाती और उसके साथ बतमीज़ी करती तो लड़को पर ही लड़कियों को अट्रेक्ट करने का इलज़ाम लगाया जाता। पुलिस (जोकि लड़कियां ही थी) उनसे भद्दे सवाल पूछती और अकेले शाम को उनके निकलने के मकसद पर सवाल करती। मीडिया लड़को के चेहरे को ब्लर कर के बार बार उनके अकेले घर से निकलने के कारण पूछती। अब लड़के खुद भी समझने लगे थे, अब उन्होंने खुद ही बाहेर जाना बंद कर दिया था, अब वो सोच समझ कर कपड़े पहनते और अपने दोस्तों को भी समझाते। 

लेकिन जब छोटे लड़को को भी परेशान किया जाने लगा और दो-तीन साल के लड़को के साथ भी कुकर्म होने लगे तब पानी सर से गुजर गया। और उन्हें पुरे सिस्टम पे शक होने लगा। जब ऐसी ऐसी घटनाएँ सामने आने लगी के सुनने वालो के रोंगटे खड़े हो जाते, तब लड़को ने एक जुट हो धरने करने का फैंसला किया। अब एक दो घटनाएँ नहीं पूरा सिस्टम ही गड़बड़ लगने लगा था। अब वो और नहीं सह सकते थे और सड़को पे उतर आये।

अब उन्हें अपनी "इज़्ज़त" से प्यारी आज़ादी थी। एक बार रात को अकेले घूमने का सुख देखा तो उन्हें भी लड़कियों के जैसे आज़ादी का मन करने लगा था। अब वो भी अकेले रात को बाइक चलाना चाहते थे। अब उन्हें भी रात को खेत कि ठंडी हवा में घूमना था। अब उन्हें पता चल गया था, के खुद कैसे ही कपड़े पहन लें, जब तक लड़कियाँ उन्हें अपने बराबर का इंसान नहीं समझेंगी, उन्हें अकेले देख हमेशा झपट ही पड़ेंगी। और अपने बराबर तब तक नहीं समझेंगी, जब तक उन्हें हर तरफ उतनी ही गिनती में लड़के नहीं दिखाई देंगे जितनी के लड़कियां। जब ड्रेस कोड सिर्फ लड़को पर नहीं लगाया जायेगा। जब मोबाइल फ़ोन की गलती ना बता लड़कियों कि गलती बताई जायेगी। जब इलज़ाम चाउमिन पर नहीं सीधे सीधे गुनहगार को दिया जाएगा। जब वो घर कि इज़्ज़त का टोकरा ढोना बंद कर देंगे। जब घरवाले लड़को को घर में बंद ना कर, लड़कियों को लड़को कि इज़्ज़त करना सिखाएंगे। अब वो सब समझ गयी थी, लेकिन समस्या समाज कि नसों में फ़ैल गयी थी और उन्हें पता था के अब तो उलट-फेर ही उपाए है। एक-दो टहनियाँ नहीं अब तो जड़ो को काटना था। 

और जब जड़े कटती हैं तो कुछ घोंसले भी टूटते हैं, और बेगुनाह पंछी भी बेघर होते हैं। लेकिन बदलाव तो लाना था, क्यूंकि और कोई चारा बचा ही नहीं था। गौर करें सब लड़कियां बुरी नहीं थी, कुछ लड़कियां तो लड़को के साथ उनकी लड़ाई तक में खड़ी थी। लेकिन सदियों से परेशान होते लड़को को लड़की जात पे ही शक होने लगा था। एक लड़के पे अत्याचार होता तो गालियां पूरे लड़की समाज को पड़ती। अब लड़ाई बड़ी थी तो इक्की दुक्की शरीफ लड़कियां भी लपेट में आई। लेकिन लड़ाई तो जायज़ थी और जारी रहेगी।  

दर्द सबका

अंग्रेजों कि हुकूमत के ख़िलाफ़ सारे भारतीय इकट्ठे होके लड़े, सारे के सारे। धर्म भूल के, जात भूल के, स्टेटस भूल के, जेंडर भूल के। एक मकसद था "आज़ादी"। अपार्थाइड (रंग-भेद) के खिलाफ सब साउथ-अफ्रीकन इकट्ठे होके लड़े। सवर्णों के जुल्मों के खिलाफ सारे दलित इकट्ठे होके लड़े। ज़ारो (जमींदारो) के ख़िलाफ़ किसान इकट्ठे होके लड़े। 

और इकट्ठे हुए मतलब, एक दूसरे कि आवाज़ बने, एक दूसरे पे भरोसा किया, यक़ीन किया। एक का दर्द सबका दर्द बना, एक कि लड़ाई सबकी लड़ाई बनी। एक कि आवाज़ सबकी आवाज़ बनी। एक भारतीय पे ज़ुल्म हुआ, तो दूसरे लड़ाई में अपना फायदा नुकसान, देखे बिना कूद गए। एक दलित जला तो दूसरे ने ये नहीं पूछा, के तू कितना सच्चा है और कितना झूठा, ये नहीं सोचा के उसकी पर्सनल लड़ाई है, इसमें मेरा क्या काम। 
क्यूंकि ज़ुल्म तो था और सब उसके शिकार थे, कोई एक तरह से कोई दूसरी तो कोई तीसरी तरह से। और एक गावँ नहीं पूरी दुनियाँ के इकट्ठे हुए, धरती के कोने कोने से साथ मिला। और तभी लड़ाई जीती जा सकती है, तभी लड़ाई आगे बढ़ाई जा सकती है।


ठीक इसी तरह से औरतो को इकट्ठे होना होगा। वो किसी कि बेटी बाद में, बहन बाद में, गर्लफ्रेंड बाद में, बीवी बाद में, 'औरत' पहले होगी, तभी इकट्ठे होना संभव होगा। दुनियाँ के किसी भी कोने में औरत पे ज़ुल्म, जब तक हमें खुद पे ज़ुल्म नहीं लगेगा, जब तक हर औरत का दर्द हमें अपना दर्द नहीं लगेगा, तब तक हम यूँही इत्तर-बित्तर रहेंगी। जब हम 'जाट' बाद में औरत पहले, 'अमीर' बाद में औरत पहले, फलाने गाँव/देश कि बाद में औरत पहले होंगी। 

जब हम एक दूसरे कि हिम्मत बनेगी, एक दूसरे कि ताक़त बनेंगी, साहस बनेंगी, स्वाभिमान बनेंगी, तब तो कुछ लड़ाई आगे बढ़ेगी। क्यूंकि आज इसकी लड़ाई सफल होगी तो कल आपकी होगी, और आज ये हारी तो कल आप भी हारेंगी। एक बात गौर करी? औरत चाहे रोहतक कि हो, या टिम्बकटू कि, या होनोलुलु कि, जितना अच्छे वो दूसरी औरत को समझ सकती है, उतना उसका खुद का करीबी से करीबी पुरुष रिश्तेदार सपने में भी नहीं समझ सकता...............................…………तो पुरुषों का साथ मिलना लाभकारी तो है, अनिवार्य नहीं। और मज़ेदार बात ये के इस लड़ाई में किसी कि "हार" नहीं है। जीत ही जीत है, घर-घर जीत है।

आवाज उठाई आपने?

बड़ा आसान होता है दुसरो को सलाह देना।  दुसरो को सीख देके हममे से अधिकतर अपना पल्ला झाड़ लेते हैं। गरीब को बोलते हैं अमीरों के अत्याचारो के खिलाफ आवाज उठाओ। औरतो को बोलते हैं जुलम मत सहो, आवाज उठाओ। अल्पसंख्यको को बोलते हैं अपने हक के लिए लड़ो, आवाज उठाओ। योन हिंसा का शिकार हुई लड़की को बोलते हैं मत छुपाओ, आवाज उठाओ। घरेलु हिंसा का शिकार औरतो को बोलते हैं, हम तुम्हारे साथ हैं, बस तुम आवाज उठाओ।  और जाने कितनी आवाजों को उठाने का जज्बा देते हैं। बस तुम आवाज उठाओ हम तुम्हारे पीछे खड़े हो जाएँगे। 

बहुत बढ़िया बात है, साथ देना चाहिय, पीछे खड़े होना चाहिए। लेकिन कभी ये सोचा के आवाज उठाना कितना मुश्किल है? कितनी हिम्मत जुटानी पड़ती है? घर परिवार को ताक पे रख देना होता है। नौकरी, रोजी-रोटी को ताक पर रखना होता है। आराम चैन नींद सब को को ताक पे रखना होता है। समाज से लड़ना होता है, सिस्टम से लड़ना होता है, सब तीज त्यौहार भूल एक लड़ाई मैं जुट जाना होता है। और मजेदार बात ये के हक की लड़ाई जीतने की कोई गारंटी नहीं होती। और हमारे देश की नाय व्यवस्था को ना नजरंदाज करते हुए देखे तो कुछ लोगो की पूरी उम्र भी कम पड़ जाती है अपने हक कि लड़ाई लड़ते लड़ते।  

लेकिन जो त्याग है, ये जो लड़ाई है, ये सिर्फ उसकी है जिसने आवाज उठाई, पीछे खड़े होने वाले जन्मदिन भी मनाएंगे, शादी मैं भी जायेंगे, छुट्टी भी मनाएंगे, सिर्फ जब मन किया तुम्हारे पीछे खड़े हो जाएंगे। जब बोर हो जायेंगे ऑफिस मैं तो तुम्हारे लिए स्टेटस अपडेट करेंगे। नहीं नहीं ये मत समझना के मैं पीछे खड़े होने वालो के खिलाफ हूँ, या उनको घटिया मानती हूँ, कतई नहीं। मैं भी पीछे खड़े होने वालो मैं से हूँ। पीछे खड़े होना बहुत जरुरी है, बल्कि साथ मैं खड़े होईये, लड़िये जब तक बन पड़े। 

लेकिन हममे से कितने लोगो ने अपने लिए आवाज उठाई है? आपके साथ ऑफिस मैं हो रहे  भेद भाव के खिलाफ आवाज उठाई है? अपने लाइन मारते, हर असाइनमेंट के बदले काफी को पूछते मेनेजर के खिलाफ आवाज उठाई है? हर प्रमोशन के बदले बिस्तर पे बुलावे (चाहे आपने ठुकरा दिया) पे आवाज उठाई है? अपने हिंसक बॉयफ्रेंड के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई है? क्या अपनी बहन के दहेज लोभी सुसुराल वालो के खिलाफ आवाज उठाई है? अपनी काम वाली के लाल-नीले निशानों के खिलाफ आवाज उठाई है? आपकी प्रॉपर्टी का हिस्सा मार जाने वाले भाई के खिलाफ आवाज उठाई है? आपके बचपन को डराने कुचलने वाले मामा/चाचा/अंकल/नौकर/पडोसी जिसका आज भी आपके परिवार में आना जाना है, आवाज उठाई है? और भी जाने कितनी आवाजे …. क्या कोई रिपोर्ट दर्ज कराई है?  

अमीना बनाम दुपट्टा


दुपट्टा निरादर है नारीत्व का, दुपट्टा तौहीन है कुदरत कि, दुपट्टा अपमान है इंसान के विकास का , दुपट्टा तौहीन है तुम्हारी संस्कृति कि! ज्यों ही लड़की रखती है कदम जवानी में, ज्यों ही होती विकसित नारी रूप में, उढ़ा दिया जाता उसे "दुपट्टा"। "ढक लो!", "छुपा लो!" भाई से छुपा लो, बाप से छुपा लो, ताऊ से छुपा लो, चाचा से छुपा लो, दोस्त से छुपा लो, पड़ोसी से छुपा लो! हर तरफ से शुरू हो जाती है कोशिश उसे छुपाने कि। मार डालने तक कि धमकियाँ दी जाती हैं, मजाल के लड़की करे गर्व अपने लड़की होने पर। तुम शरमाओ, तुम छुपाओ, नहीं तो तुम्हे "बदचलन", "बेहया", और ना जाने क्या क्या उपाधियाँ दी जाती हैं। डरा धमका के ढक दिया जाता है लड़की के विकास को।
क्या रहस्य है? डर लगता है लड़की के जवान होने से, या शर्म आती है? क्या छुपा ले? अपने नारी होने को? अपने विकास को? अपनी जवानी को? कलंक है जो छुपा ले? पाप करती है जो जवान होती है?

दूसरी तरफ लड़का बस इस कोशिश में रहता है, के किसी तरह दाढ़ी-मुछ आ जाये, कच्ची-चिकनी खाल पे चलाता रहता है ब्लेड, बस कैसे जल्दी से जल्दी जवान हो जाए। जवान होते ही पनियाता फिरता है अपनी मुछो को, ताव देता फिरता है अपनी जवानी कि निशानी पे!  होता है गुमान माँ को, बाप को, ताऊ को, चाचा को, पुरे समाज को उसकी जवानी पे! पूरा दिखावा होता है लड़के कि जवानी का, गर्व करता है, इठलाता फिरता है। वहीँ दूसरी तरफ शर्म में गाड़ दिया जाता है लड़की कि जवानी को। तैयार किया जाता है उसे पुरुष प्रधान समाज के लिए। "पर्दे" कि और पहला कदम है दुपट्टा। ये नीव है गुलामी कि। 

पागल कुत्ते

लड़का चाहे लंगोट बांध के घुमे, चाहे नंगा घुमे, चाहे सूट पहन के घुमे…. लड़कीयों को कभी कोई दिक्कत नहीं होती। ना वो एक नंगे लड़के पे टूट पड़ती हैं। ना कभी उन्हें "बेहया" का तगमा दिया जाता है। अगर कुछ लड़को कि सोच गिरी हुई है तो इसका भुगतान लड़कियां क्यूँ करे?

लड़कीयों के पहनावे के ठेका समाज ने क्यूँ ले रखा है?? कहीं स्कर्ट बैन कर दी जाती हैं, कहीं दुप्पटा जरुरी कर दिया जाता है। कमाल है! शर्म भी नहीं आती इन ठेकेदारों को! थू! कुछ वर्ष पहले सभी पुरुष चोटी रखते थे, हिन्दू होने की पहचान होती थी चोटी। मुछो को भी मर्द होने का प्रतिक माना जाता था। आज ना कोई चोटी रखता है, ना कोई मूछों की परवाह करता है। कभी लड़कियां चिल्लाई के, "ये क्या पाप किये जाते हो", "प्रकर्ति के देन दाढ़ी मूछ मुंडवा के "बेहया" हुए जाते हो!" "चोटी काट के अधर्म किये जाते हो!" लेकिन आपकी मर्जी कि इज्ज़त कि जाती है।

जो जी में आये करो! जब तक किसी दुसरे को नुकसान नहीं पहुंचाती तुम्हारी मर्ज़ी, एकदम जायज़ है। तो फिर नियम कानून सब लड़कियों के सर क्यूँ मढ़े जाएँ? अगर गली में पागल कुत्ते हों, तो बाहर निकलना बंद करते हो? गार्ड पहन के जाते हो? या पागल कुत्तो को गोली मरवा देते हो? अगर पागल कुत्ता काट भी ले, तो क्या दोष तुम्हे दिया जाता है, के बाहर क्यूँ निकले, या इस तरह के कपड़े क्यूँ पहने, तुमने कुत्ते को उकसाया तो नहीं? अरे कुत्ता पागल है, तो या तो कुत्ते का इलाज़ करवाओ, या उसे बंद करो, या गोली मारो दो। कुत्ते हमारी आज़ादी को तो नहीं खतरे में डाल सकते ना?

लड़की की आज़ादी के नाम से ही क्यूँ सीने पे सांप लोटने लगते हैं? क्या डर लगता है? उसकी मर्ज़ी से तुम्हे क्या खतरा महसूस होता है? खुद पे नियंत्रण नहीं है तो ये तुम्हारी समस्या है, ना कि हमारी। और पागल कुत्ते तो २ साल कि बच्ची तक को नहीं बक्शते, क्या दुपट्टा और क्या साड़ी!

जितना भरा, उतना खाली


जितना आगे बाहर बढ़े, उतने हि गहरे अंदर ना उतरे तो भी बात यूँ कि यूँ हि है। जब भी पापा को बताती हूँ के ये देश घूमा, वो आर्टिकल लिखा, इतने पैसै कमाए, तो पापा एक ही बात कहते हैं, "प्राणायाम किया?" "ध्यान में कितने गहरे उतरी?" बचपन में जब पापा से कोई पूछता बेटी क्या बनेगी, तो पापा कहते, "जो करेगी के नहीं करेगी, खुश रहेगी, आनंद में रहेगी।" उन्होंने सिखाया भी ये ही, "बेटा 'जीना' सीखना, और सब तो बाद की बात है। नाचना सीखना, खिलखिलना सीखना, और तो सब तो छिछला है, अस्थाई है।" खुश होगी तो चाय कि दुकान खोल के भी सुखी होगी, और नहीं तो बड़े बड़े बिज़नेसमैन भी पुलों से कूद जाते हैं।

क्योंकि सुख ना किसी देश में है, ना किसी दफ़्तर में। ना किसी धर्म में है, ना किसी झंडे में। ना किसी रिश्ते में है, ना किसी समाज में। सुख तो बाहर है ही नहीं, सुख तो अंदर ही घटेगा। जब ध्यान घटेगा, ठहराव घटेगा, प्रेम घटेगा, विश्वास घटेगा।

पेरिस में लोगों को रोते देखा, अमीरों को बिलखते, ग़रीबी भी दुखी देखी, बड़ी नौकरी भी परेशान देखी। बड़े बड़े क्रांतिकारियों को कुढ़ते देखा, नेताओं को सिकुड़ते देखा। क्यूंकि अंदर तो खोखला मामला था। ना कभी झाँका था, ना कभी संभाला था। कुछ बन के सुख पा जायेगा सिखाया था, लेकिन सुखी रहना तो सिखाया ही नहीं!! कुछ बन जाने में इतना परेशान हो गए, के जो थोड़ा बहुत सुख था वो भी भूल गए। लेकिन सुख का, और कुछ बन जाने का नाता ही क्या?

सुख तो अंदर से आएगा, जब बेपरवाही आएगी, जब भरोसा आएगा। और भरोसा ऐसा, जैसा धरती को है सूरज पे, पेड़ो को है बारिश पे, पक्षियों को है हवा पे, सागर को है नदियों पे। तभी तो सब कैसे सुंदर, मस्त, नाचते-गाते से नज़र आते हैं। ऐसा भरोसा जिसको बड़े से बड़े तुफान ना ढिगा पाएँ, टुच्चे ब्रेकअप और जैबकतरी कि तो बिसात ही क्या। हाँ मुझे तुझ पे भरोसा है, हाँ मुझे 'उस' पे भरोसा है। अब पैसे कमा कर भी, उसको बचाने में ही खुद खर्च हो गए तो क्या मज़ा?

मेरी बिसात बहुत छोटी के तुझे जान जाऊं, इस कमरे कि दिवार के बहार कि समझ नहीं मुझे। लेकिन मेरा विश्वास है तुझ पे, चाहे ना समझ पाउ आज, कल, या जन्मों भर में भी। लेकिन मेरा विश्वास है के, जो हुआ अच्छा हुआ, जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है, जो होगा वह भी अच्छा ही होगा। गांव में गोबर से पत्ता-पोइ खेलते वक़्त ये नहीं पता था, के एक दिन लंदन मेफेयर में चैस खेलना हो पायेगा। लेकिन विश्वास तो था। और रहेगा।

रंग-बिरंगी धारियां

हाईड-पार्क के पांच मंज़िले घर में, कमरे होंगे दस और लोग महज़ पांच। हम स्टडी में बैठ के शतरंज खेल रहे थे, और पियानो पे अडेल बीथोवन कि कोई धुन बजा रही थी। घर का फर्नीचर पुराने और नए का मेल है। फायर-प्लेस के ठीक ऊपर पुराने ढंग का बड़ा सा आईना, जिसके चारो तरफ सुंदर लकड़ी का काम अब गलने लगा है। नए डिज़ाइन का गोल हरा और संतरी, ठीक टेबुल के ऊपर टंगा झूमर। एक बड़ सा मजबूत दिखने वाला स्टडी टेबुल, और उसकी अलग अलग रंग और साइज कि कुर्सियां (जो शायद तीनो बच्चो कि पसंद और जरुरत के हिसाब से मंगाई गई थी।) टेबुल पे रखी हैं दर्जनों रंग बिरंगी पेन और पेंसिलें, तरह तरह के शार्पनर और रब्बर, फूलो वाली छोटी बड़ी कापियां, जिनकी तरफ रह रह के मेरा ध्यान खिच जाता है। मैं बीच बीच में अलग अलग पेन उन कापीयों पे चला के देखती हूँ, और अपनी लोहे कि जिमेट्री जिसमें एक लाल काली धारी कि पेन्सिल, आधा सफ़ेद रब्बर और एक कन्नी से टुटा शार्पनर होता था, याद करती हूँ। मैं ये सारी चीजें अपने बैग में भर लेना चाहती हूँ.…

स्टीवन सब के लिए 'टी' ले आया है, बड़ी सी ट्रे में सुंदर नीले रंग कि केतली, सफ़ेद कटोरी में भूरे रंग के शुगर क्यूब्स और छोटे बड़े चीनी के कप। मैं स्टील कि बेली में गुड़ कि चाय याद करते हुए अपने कप में बिना दूध कि 'टी' उड़ेलती हूँ तो मेरे हाथ बिना कारण कांप जाते हैं, स्टीवन मुझसे पूछता है कहीं मुझे ठण्ड तो नहीं लग रही। लेकिन ये बड़ा सा घर इतना गरम है के मुझे अंदाजा भी नहीं होता के बाहर बर्फ गिर रही होगी।

क्लास खत्म होने वाली होती है तो अडेल मुझ से बात करने निचे आ जाती है। बच्चे फुटबॉल का कोई मैच देखने के लिए बेताब हैं और फटाफट चैस कि आखरी पहेली सुलझा लेना चाहते हैं। यहाँ फुटबॉल तो जैसे खून में हैं, बच्चे-बूढ़े सब ऐसे अपनी अपनी पसंदीदा टीमों के बारे में बात करते हैं के मत पूछो। कोन खिलाड़ी कब और कितने में खरीदा, कोन बिका, कोन नया कोच आया से लेके टिकट कितनी महँगी सस्ती हुई सब कि ना सिर्फ खबर रखते हैं, ओपिनियन भी रखते हैं। और अपनी टीम कि जर्सियां पहन के ऐसे इठलाते घूमते हैं के क्या कहने, फिर जीतने हारने पर खूब जब के बहस करते हैं। मैं तो जो जिसकी जर्सी पहना होता है उसी कि साइड हो जाती हूँ, फ़ालतू में क्यूँ किसी का दिल दुखाया जाये। इस घर के बच्चो का फेवरेट चेल्सी है और स्टीवन का वेस्ट-हैम, तो मैं मैच शुरू होने से पहले ही खिसक लेती हूँ।

स्टडी के सामने खुली रसोई है, और मुझे तेज़ पास्ता और चीज़ कि महक आ रही है, मुझे भूख भी लगी है। अडेल को जैसे सब मालूम होता है, वो मुझे खाने पे रुक जाने को कहती है, लेकिन मुझे अभी दूर जाना है और रास्ते में कल के लिए दूध और सब्जियां भी लेनी हैं। वो मुझे दरवाज़े पर छोड़ने आती है, मैं दस्ताने लाना भूल गयी हूँ और अपने हाथ मफ़लर में छिपा लेती हूँ। अडेल मुझे दो मिनट रुकने को कहती है, और भाग के अंदर से दो अलग-अलग दस्ताने ले आती है, और जबरदस्ती मुझे थमा देती है। मैं उसे चूम लेना चाहती हूँ........उससे तो मुझे आजकल अपनी पंसदीदा चीज बोलने में भी झिझक होती है, मैंने उससे एक दिन कहा के ये 'टी' बहुत अच्छी है तो उसने चुपके से मेरे बैग में उसका डब्बा डाल दिया। कैसे इतने प्यार करने वाले लोग मिल जाते हैं मुझे? मुझे अपनी किस्मत पे भी रश्क़ होता है कभी कभी।

खैर मैं जल्दी से विदा लेती हूँ और तेज़ी से ट्रैन स्टॉप कि तरफ कदम बढाती हूँ, अभी तो घर पहुँचने में देर है, रात घिर आई है और ये बर्फ..... ट्रैन स्टॉप ज्यादा दूर नहीं है, लेकिन सर्दी में अँधेरा जल्दी होने लगता है और आज तो बर्फ भी गिर पड़ी है। रास्ते में आयरलैंड एम्बेसी कि बड़ी सी ईमारत है, बिल्डिंग बंद होने के बावज़ूद भी  अंदर लाइटे जल रही हैं और बड़ी बड़ी खिड़कियों से अंदर का नजारा दिख रहा है। ये बड़े बड़े झूमर और लाइन में लगा फर्नीचर, अंदर एकदम गरम मालूम पड़ता है, क्या पता शायद हीटर भी चलता ही छोड़ दिया गया है। एम्बेसी के दरवाज़े के सामने एक अधेड़ उम्र का आदमी गत्ते जचा रहा है, आज रात यहीं ठिकाना मालूम पड़ता है। क्या पता अंदर कि गर्मी दरवाजे के नीचे से चुपके से इसकी चादर में सरक आये। क्या इसे भी अपनी किस्मत पे रश्क़ होता होगा? क्या इसकी भी कोई अडेल होगी कहीं………