वो २२ साल कि इतालियन लड़की अकेली इंडिया आई थी। रमोना को भारतीय लड़के बहुत पसंद थे और उसे अपनी पसंद बताने में कोई झिझक ना थी। वो अब तक आधी दुनिया घूम चुकी थी, बार-या-कैफ़े में काम कर अपना घुमाई खर्च निकालती और बेझिझक अपनी ब्राउन लड़को कि चाहत को एक्सप्रेस करती और मैं बस उसे एकटक सुनती। मैं उस समय अठरह साल कि थी, और मुझे कहीं ख्याल भी ना थ के उसकी रोमांचक बाते सुनते सुनते एक दिन मैं उसकी तरह एकदम अकेले दुनिया घूमूंगी।
रमोना उन लोगो में से थी जो शायद बहुत थोड़े से समय में आपकी जिंदगी का बड़ा सा हिस्सा बन जाते है। ठीक दस साल हो गए हैं मुझे उससे से मिले, उसकी याद आज भी उतनी ही ताज़ा है और शायद हमेशा रहेगी। मेरे जीवन के सफर को उस बित्ती भर कि, चहकती, मचलती लड़की ने एक अलग दिशा में मोड़ दिया था। रमोना का और मेरा साथ महज़ दस दिन का था, वो फिरती मदमस्त और मैं उसे मुह खोले ताकती रहती। जब वो चली गयी तो ना कोई फ़ोन-कॉल, शायद एक-दो ईमेल हुए होंगे फिर वो भी खत्म। लेकिन वो मुझे अपना एक हिस्सा दे गयी, अपनी रूह दे गयी, अपनी एक आज़ादी का टुकड़ा दे गयी। वो चली गयी लेकिन उसकी आज़ादी कि महक रह गयी।
रमोना से मेरी मुलाकात पूना में हुई, वो मेरे कुछ दोस्तों कि दोस्त थी और हम अक्सर उसके कैफ़े के टाइम के बाद यूँही बतियाते या घूमने निकलते। एक शाम हमने एम-जी रोड घूमने का प्लान बनाया, और रमोना को कैफ़े से लेने चले गए। रमोना को मेरे दोस्तों ने सब हिंदी गालियां सीखा दी थी, वो हमेशा हमारा स्वागत हिंदी में गलिओं कि बौछार से करती और फिर अपनी इटालियन एक्सेंट में कहती, "मेरी जान क्या चाहिए!" जवाब में लड़के दोस्त हमेशा कुछ ना कुछ ऐसा मांगते के वो कहती, "एव्री डॉग हस इट्स डे", और खिलखाले हुए उन्ही के कंधो पे हाथ रख मस्त चलती।
हमने उसे अपने एम-जी रोड घूमने का प्लान बताया तो वो फट से तैयार हो गयी, और बोली वो पूरे दिन काम करके थक गयी है और शावर ले के ही हमारे साथ चल सकती है। अब हमे पहले उसके घर जाना पड़ता और हमारी खाली-पिली कसरत हो जाती, तो मेरे दोस्त ने तपाक से कहा, "तुम तो ऐसे ही बहुत खूबसूरत हो, तुम्हे नहाने की कोई जरुरत नहीं।" मैंने भी कहा, "चलो ना बाद में आके नहा लेना।" यूँ दोस्तों कि जिद्द के आगे झुक जाना मेरे लिए बहुत छोटी बात थी। अपनी बड़ी से बड़ी इच्छाओं को औरो कि अपील के सामने भुला देना कोई बड़ी बात नहीं थी, फिर ये महज़ 'ना-नहाने' कि बात थी।
लेकिन उसने शायद अपनी इच्छाओं को सब से पहले रखना सीखा था, चाहे वो इच्छा अदनी सी क्यूँ ना हो। उसने कहा के उसका नहाना और सुन्दर दिखने में कोई कनेक्शन नहीं है, सुन्दर तो वो दस दिन ना नहाये तो भी दिखेगी। उसकी नहाने कि इच्छा से हमारा कोई तालुक नहीं है, और अगर हमें देर हो रही है हंम जाएं, वो बाद में आ जाएगी। इतनी हिम्मत! इतनी सीधी बात! कोई लड़की अपनी इच्छाओं को लेकर इतनी क्लियर कैसे हो सकती है, इतनी अस्सेर्टिव कैसे हो सकती है, मैं फिर एकटक थी। वो कभी कोई काम औपचारिकता वश नहीं करती, हम भारतीय, (लड़कियाँ खासकर) औरो की बात मान, अपनी जरूरते भूल जाती हैं, और फिर कोसते हैं, खुद को भी और दोस्तों को भी। ना औरो के हो पाते हैं, ना खुद के। और फिर वही पुरानी ब्लेम गेम, "मैंने तुम्हारे लिए ये किया, वो किया, फलाने के लिए ये करा, ढीमके के लिए ये करा" उसने क्या करा। अगर नहीं जी है तो मत करो, और करो तो फिर जाताना कैसा?
………
वो एक कमरे के माकन में रुकी थी, उसमे कमरे में उसका बैगपैक, और एक स्लीपिंग बैग भर था। वो सीधे गुसलखाने में घुस गयी, और ५ मिनट में तोलिया बाँध के निकली और फिर तोलिया खोल अपने गीले बाल झड़ने लगी। वो मेरे सामने थी, सिर्फ तोलिये में, वो भी सर पे। वो हमसे बात करती रही और कपड़े पहनती रही, उसके हाव-भाव में कपड़ो का होना या ना होना कोई फर्क नहीं डाल रहा था। लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं था, मेरा दोस्त जरुरत से ज्यादा शांत था, और मुझे उसकी आवाज़ सुननी बंद हो गयी थी।
वो मेरी हीरो थी। मेरा लक्ष्य इस जीवन में गाड़ी-बंगला बनाना नहीं, अपने शरीर के साथ, अपने इमोशन्स के साथ इतना कम्फ़र्टेबल होना था।
रमोना उन लोगो में से थी जो शायद बहुत थोड़े से समय में आपकी जिंदगी का बड़ा सा हिस्सा बन जाते है। ठीक दस साल हो गए हैं मुझे उससे से मिले, उसकी याद आज भी उतनी ही ताज़ा है और शायद हमेशा रहेगी। मेरे जीवन के सफर को उस बित्ती भर कि, चहकती, मचलती लड़की ने एक अलग दिशा में मोड़ दिया था। रमोना का और मेरा साथ महज़ दस दिन का था, वो फिरती मदमस्त और मैं उसे मुह खोले ताकती रहती। जब वो चली गयी तो ना कोई फ़ोन-कॉल, शायद एक-दो ईमेल हुए होंगे फिर वो भी खत्म। लेकिन वो मुझे अपना एक हिस्सा दे गयी, अपनी रूह दे गयी, अपनी एक आज़ादी का टुकड़ा दे गयी। वो चली गयी लेकिन उसकी आज़ादी कि महक रह गयी।
रमोना से मेरी मुलाकात पूना में हुई, वो मेरे कुछ दोस्तों कि दोस्त थी और हम अक्सर उसके कैफ़े के टाइम के बाद यूँही बतियाते या घूमने निकलते। एक शाम हमने एम-जी रोड घूमने का प्लान बनाया, और रमोना को कैफ़े से लेने चले गए। रमोना को मेरे दोस्तों ने सब हिंदी गालियां सीखा दी थी, वो हमेशा हमारा स्वागत हिंदी में गलिओं कि बौछार से करती और फिर अपनी इटालियन एक्सेंट में कहती, "मेरी जान क्या चाहिए!" जवाब में लड़के दोस्त हमेशा कुछ ना कुछ ऐसा मांगते के वो कहती, "एव्री डॉग हस इट्स डे", और खिलखाले हुए उन्ही के कंधो पे हाथ रख मस्त चलती।
हमने उसे अपने एम-जी रोड घूमने का प्लान बताया तो वो फट से तैयार हो गयी, और बोली वो पूरे दिन काम करके थक गयी है और शावर ले के ही हमारे साथ चल सकती है। अब हमे पहले उसके घर जाना पड़ता और हमारी खाली-पिली कसरत हो जाती, तो मेरे दोस्त ने तपाक से कहा, "तुम तो ऐसे ही बहुत खूबसूरत हो, तुम्हे नहाने की कोई जरुरत नहीं।" मैंने भी कहा, "चलो ना बाद में आके नहा लेना।" यूँ दोस्तों कि जिद्द के आगे झुक जाना मेरे लिए बहुत छोटी बात थी। अपनी बड़ी से बड़ी इच्छाओं को औरो कि अपील के सामने भुला देना कोई बड़ी बात नहीं थी, फिर ये महज़ 'ना-नहाने' कि बात थी।
लेकिन उसने शायद अपनी इच्छाओं को सब से पहले रखना सीखा था, चाहे वो इच्छा अदनी सी क्यूँ ना हो। उसने कहा के उसका नहाना और सुन्दर दिखने में कोई कनेक्शन नहीं है, सुन्दर तो वो दस दिन ना नहाये तो भी दिखेगी। उसकी नहाने कि इच्छा से हमारा कोई तालुक नहीं है, और अगर हमें देर हो रही है हंम जाएं, वो बाद में आ जाएगी। इतनी हिम्मत! इतनी सीधी बात! कोई लड़की अपनी इच्छाओं को लेकर इतनी क्लियर कैसे हो सकती है, इतनी अस्सेर्टिव कैसे हो सकती है, मैं फिर एकटक थी। वो कभी कोई काम औपचारिकता वश नहीं करती, हम भारतीय, (लड़कियाँ खासकर) औरो की बात मान, अपनी जरूरते भूल जाती हैं, और फिर कोसते हैं, खुद को भी और दोस्तों को भी। ना औरो के हो पाते हैं, ना खुद के। और फिर वही पुरानी ब्लेम गेम, "मैंने तुम्हारे लिए ये किया, वो किया, फलाने के लिए ये करा, ढीमके के लिए ये करा" उसने क्या करा। अगर नहीं जी है तो मत करो, और करो तो फिर जाताना कैसा?
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वो एक कमरे के माकन में रुकी थी, उसमे कमरे में उसका बैगपैक, और एक स्लीपिंग बैग भर था। वो सीधे गुसलखाने में घुस गयी, और ५ मिनट में तोलिया बाँध के निकली और फिर तोलिया खोल अपने गीले बाल झड़ने लगी। वो मेरे सामने थी, सिर्फ तोलिये में, वो भी सर पे। वो हमसे बात करती रही और कपड़े पहनती रही, उसके हाव-भाव में कपड़ो का होना या ना होना कोई फर्क नहीं डाल रहा था। लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं था, मेरा दोस्त जरुरत से ज्यादा शांत था, और मुझे उसकी आवाज़ सुननी बंद हो गयी थी।
वो मेरी हीरो थी। मेरा लक्ष्य इस जीवन में गाड़ी-बंगला बनाना नहीं, अपने शरीर के साथ, अपने इमोशन्स के साथ इतना कम्फ़र्टेबल होना था।
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