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Sunday, February 1, 2015

दर्द सबका

अंग्रेजों कि हुकूमत के ख़िलाफ़ सारे भारतीय इकट्ठे होके लड़े, सारे के सारे। धर्म भूल के, जात भूल के, स्टेटस भूल के, जेंडर भूल के। एक मकसद था "आज़ादी"। अपार्थाइड (रंग-भेद) के खिलाफ सब साउथ-अफ्रीकन इकट्ठे होके लड़े। सवर्णों के जुल्मों के खिलाफ सारे दलित इकट्ठे होके लड़े। ज़ारो (जमींदारो) के ख़िलाफ़ किसान इकट्ठे होके लड़े। 

और इकट्ठे हुए मतलब, एक दूसरे कि आवाज़ बने, एक दूसरे पे भरोसा किया, यक़ीन किया। एक का दर्द सबका दर्द बना, एक कि लड़ाई सबकी लड़ाई बनी। एक कि आवाज़ सबकी आवाज़ बनी। एक भारतीय पे ज़ुल्म हुआ, तो दूसरे लड़ाई में अपना फायदा नुकसान, देखे बिना कूद गए। एक दलित जला तो दूसरे ने ये नहीं पूछा, के तू कितना सच्चा है और कितना झूठा, ये नहीं सोचा के उसकी पर्सनल लड़ाई है, इसमें मेरा क्या काम। 
क्यूंकि ज़ुल्म तो था और सब उसके शिकार थे, कोई एक तरह से कोई दूसरी तो कोई तीसरी तरह से। और एक गावँ नहीं पूरी दुनियाँ के इकट्ठे हुए, धरती के कोने कोने से साथ मिला। और तभी लड़ाई जीती जा सकती है, तभी लड़ाई आगे बढ़ाई जा सकती है।


ठीक इसी तरह से औरतो को इकट्ठे होना होगा। वो किसी कि बेटी बाद में, बहन बाद में, गर्लफ्रेंड बाद में, बीवी बाद में, 'औरत' पहले होगी, तभी इकट्ठे होना संभव होगा। दुनियाँ के किसी भी कोने में औरत पे ज़ुल्म, जब तक हमें खुद पे ज़ुल्म नहीं लगेगा, जब तक हर औरत का दर्द हमें अपना दर्द नहीं लगेगा, तब तक हम यूँही इत्तर-बित्तर रहेंगी। जब हम 'जाट' बाद में औरत पहले, 'अमीर' बाद में औरत पहले, फलाने गाँव/देश कि बाद में औरत पहले होंगी। 

जब हम एक दूसरे कि हिम्मत बनेगी, एक दूसरे कि ताक़त बनेंगी, साहस बनेंगी, स्वाभिमान बनेंगी, तब तो कुछ लड़ाई आगे बढ़ेगी। क्यूंकि आज इसकी लड़ाई सफल होगी तो कल आपकी होगी, और आज ये हारी तो कल आप भी हारेंगी। एक बात गौर करी? औरत चाहे रोहतक कि हो, या टिम्बकटू कि, या होनोलुलु कि, जितना अच्छे वो दूसरी औरत को समझ सकती है, उतना उसका खुद का करीबी से करीबी पुरुष रिश्तेदार सपने में भी नहीं समझ सकता...............................…………तो पुरुषों का साथ मिलना लाभकारी तो है, अनिवार्य नहीं। और मज़ेदार बात ये के इस लड़ाई में किसी कि "हार" नहीं है। जीत ही जीत है, घर-घर जीत है।

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