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Sunday, February 1, 2015

हुआ कुछ यूँ

उत्तर भारत में एक गाँव था। कहने को तो गाँव में काफी खुशहाली थी लेकिन कुछ समय से वहां एक विचित्र समस्या घर कर गयी थी। वहां दिन ढलने के बाद लड़को का निकलना मुश्किल हो गया था। हर गली नुक्कड़ पे आवारा लड़कियाँ खड़ी रहती, आते जाते लड़को पर फब्तियाँ कसती, उन्हें भद्दे इशारे करती, और मौक़ा लगने पर चोंटी तक काट लेती। गांव के बस स्टॉप, पान कि दुकान, चाय कि दुकान, पंसारी यहाँ तक के पंचयात तक में उन्होंने अपना कब्ज़ा जमा लिया था। जब देखो, जहाँ देखो  लड़कियां ही खड़ी दिखती। एक-आध लड़का भूले-बिसरे वहां से चल गुजरता तो बस, सब उसपर लपक पड़ती। 

लड़को ने अकेले घर से निकलना तक बंद कर दिया था। खासकर के शाम के वक़्त तो हर जगह सिर्फ लड़कियां ही लड़कियां दिखाई पड़ती। जब लड़को का पूरा समय अंदर बैठ कर दम घुटने लगा तो कुछ हिम्मत वाले लड़को बाहेर जाने कि कोशिश कि। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ, लड़कीयों ने लड़को को ऐसा सबक सिखाया के लड़के और भी भयभीत हो गए। आख़िरकार लड़को के माँ-बाप और कुछ शुभचिंतको ने पंचायत के सामने अपनी समस्या रखी, लेकिन ये क्या, पंचायत (जिसमे सब लड़कियां ही थी) ने लड़को का मोबाइल और टी-वी बंद करा दिया। 

गांव में एक ही कॉलेज था, उस कॉलेज के गेट पर लड़कियां सुबह सुबह दादी बन के खड़ी हो जाती, और आते जाते लड़को को परेशान करती। लड़को का गेट पे खड़े रहना तो दूर, कॉलेज के अंदर जाना तक दुर्भर हो गया था। लड़को के टाइट कपड़े देख लड़कियां और भी उत्तेजित हो जाती, और उनकी फिगर तो लेकर भद्दी बाते कहती थी। जब लड़को ने कॉलेज एडमिनिस्ट्रेशन से शिकायत कि तो, लड़को को ढंग के कपड़े पहनने के लिए कहा गया और एक ड्रेस कोड जरुरी कर दिया। अब कोई लड़का गर्मियों में छोटी बाजू का टी-शर्ट पहन के आता तो उसे वापस घर भेज दिया जाता। बात भी सही थी, माहौल ही इतना ख़राब था, सोच समझ के कपड़े पहनने चाहिएं। 

लड़को के माँ-बाप ने उन्हें सख्त हिदायत दे रखी थी के वो आँखे नीची कर के सीधा कॉलेज जाए और वापस घर आएं। कैंटीन में मस्ती करने की, खाली गेट पे तफरी करने कि या दोस्ती-यारी में जोर से हंसने या खिलखिलाने कि उन्हें बिलकुल मनाई थी। जोर से हंसता या गाना गाता लड़का लड़कियों को आकर्षित कर सकता था, और फिर तो आप सब जानते ही हैं के जमाना ख़राब हो चला था। जो लड़का इन बातो को नहीं मानता उसे "तेज" और "बुरे करैक्टर" के सर्टिफिकेट दिए जाने लगे। 

अब हर तरफ लड़को कि "इज़्ज़त" को खतरा था। और चूँकि घर कि इज़्ज़त लड़को के हाथ में होती है, लड़को के घरवालों ने अपनी "नाक" कि खातिर लड़को को घर में रखना शुरू कर दिया। यहाँ तक के शादी तक जल्दी कराने लगे। लड़को को सिखाया जाने लगा के, "लड़के खुली तिज़ोरी कि तरह होते हैं, अगर अपने को ढक के नही रखेंगे तो चोर की तो नज़र तो खराब होगी ही, जमाने को सुधारने से अच्छा है खुद को सुधारो। लड़के या आदमी को अपना शरीर ढक कर रखना चाहिए अगर इस हवसी दुनिया से बचना है।" और भी ऐसी अनेको बाते लड़को को समझाई जाने लगी, और सख्त नियम बनाये जाने लगे, के कैसे लड़कियों का शिकार होने से बचा जाए। शायद लड़कियों को समझाने का किसी ने सोचा ही नहीं, और छोटी लड़कियां बड़ो के देखा देखी में उन्ही जैसे बनने कि कोशिश करती। 

यहाँ तक के फिल्मों और नाटको में ऐसी ही लड़कि को हीरोइन बताया जाने लगा, जो लड़के के पीछे पड़ जाए, सीटी बजाये, आँख मारे, भद्दे कमेंट करे, और उसकी "ना" में भी "हाँ" ही सुने। और लड़के ऐसे ही अच्छे बताए जाने लगे जो अपने काम-से-काम रखें, आँख नीची कर के चले और आख़िरकार अपने घरवालों कि "नाक" कि खातिर अग्नि-परीक्षा दे डाले। अब छोटी लड़कियां टीवी पे ही अपने आइडियलस ढूंढ़ती और उनकी नक़ल करती, और क्यूंकि सीधे-सीधे लड़को से बात करना समाज ने बैन कर रखा था, वो फिल्मों से ही लड़को के बारे में जानकारी पाती। 

जब भी कोई लड़की किसी लड़के को तंग करती या उठा ले जाती और उसके साथ बतमीज़ी करती तो लड़को पर ही लड़कियों को अट्रेक्ट करने का इलज़ाम लगाया जाता। पुलिस (जोकि लड़कियां ही थी) उनसे भद्दे सवाल पूछती और अकेले शाम को उनके निकलने के मकसद पर सवाल करती। मीडिया लड़को के चेहरे को ब्लर कर के बार बार उनके अकेले घर से निकलने के कारण पूछती। अब लड़के खुद भी समझने लगे थे, अब उन्होंने खुद ही बाहेर जाना बंद कर दिया था, अब वो सोच समझ कर कपड़े पहनते और अपने दोस्तों को भी समझाते। 

लेकिन जब छोटे लड़को को भी परेशान किया जाने लगा और दो-तीन साल के लड़को के साथ भी कुकर्म होने लगे तब पानी सर से गुजर गया। और उन्हें पुरे सिस्टम पे शक होने लगा। जब ऐसी ऐसी घटनाएँ सामने आने लगी के सुनने वालो के रोंगटे खड़े हो जाते, तब लड़को ने एक जुट हो धरने करने का फैंसला किया। अब एक दो घटनाएँ नहीं पूरा सिस्टम ही गड़बड़ लगने लगा था। अब वो और नहीं सह सकते थे और सड़को पे उतर आये।

अब उन्हें अपनी "इज़्ज़त" से प्यारी आज़ादी थी। एक बार रात को अकेले घूमने का सुख देखा तो उन्हें भी लड़कियों के जैसे आज़ादी का मन करने लगा था। अब वो भी अकेले रात को बाइक चलाना चाहते थे। अब उन्हें भी रात को खेत कि ठंडी हवा में घूमना था। अब उन्हें पता चल गया था, के खुद कैसे ही कपड़े पहन लें, जब तक लड़कियाँ उन्हें अपने बराबर का इंसान नहीं समझेंगी, उन्हें अकेले देख हमेशा झपट ही पड़ेंगी। और अपने बराबर तब तक नहीं समझेंगी, जब तक उन्हें हर तरफ उतनी ही गिनती में लड़के नहीं दिखाई देंगे जितनी के लड़कियां। जब ड्रेस कोड सिर्फ लड़को पर नहीं लगाया जायेगा। जब मोबाइल फ़ोन की गलती ना बता लड़कियों कि गलती बताई जायेगी। जब इलज़ाम चाउमिन पर नहीं सीधे सीधे गुनहगार को दिया जाएगा। जब वो घर कि इज़्ज़त का टोकरा ढोना बंद कर देंगे। जब घरवाले लड़को को घर में बंद ना कर, लड़कियों को लड़को कि इज़्ज़त करना सिखाएंगे। अब वो सब समझ गयी थी, लेकिन समस्या समाज कि नसों में फ़ैल गयी थी और उन्हें पता था के अब तो उलट-फेर ही उपाए है। एक-दो टहनियाँ नहीं अब तो जड़ो को काटना था। 

और जब जड़े कटती हैं तो कुछ घोंसले भी टूटते हैं, और बेगुनाह पंछी भी बेघर होते हैं। लेकिन बदलाव तो लाना था, क्यूंकि और कोई चारा बचा ही नहीं था। गौर करें सब लड़कियां बुरी नहीं थी, कुछ लड़कियां तो लड़को के साथ उनकी लड़ाई तक में खड़ी थी। लेकिन सदियों से परेशान होते लड़को को लड़की जात पे ही शक होने लगा था। एक लड़के पे अत्याचार होता तो गालियां पूरे लड़की समाज को पड़ती। अब लड़ाई बड़ी थी तो इक्की दुक्की शरीफ लड़कियां भी लपेट में आई। लेकिन लड़ाई तो जायज़ थी और जारी रहेगी।  

1 comment:

Unknown said...

जड़ें तो उखाड़नी पड़ेंगी , जड़ें इतनी गहरी हैं कि काटने के बाद तो पुनः जीवित हो जायेंगी।