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Thursday, August 28, 2008

लहरें




















अंधेरें कमरे मैं लौ के संग नाचती परछाईयां,
दिल के किसी कोने मैं लेती ख्वाईशैं अंगड़ाईयां ,
क्या थिरकते है पैर तुम्हारे भी इस लय के संग,
पर क्या फिर सिहर जाते हो तुम देख कर
काँटों के देश मैं ये मोम के हंस।

क्या अब ख़ुद पर भी व्यंग कसने लगे हो,
देखते हो रौशनी का झरोखां, या देख कर आँख बंद करने लगे हो?

धुंध मैं टिमटिमाता ये झिलिमल सितारा,
ये खोखला शहर, सूखे पेड़ और ये खामोश किनारा.
छुपी हैं अभी भी कुछ नटखट परछाईया इन खंडरों मैं कहीं,
देखो वो सफ़ेद मोती सपने लिए अभी भी चमकीलें कई।

बादल अभी भी गरजते हैं उसी अनहंकार से,
धरती अभी भी सीहरती है पहली बौछार से,
परिंदे आज भी उड़ान बेपरवाह भरते हैं,
फूल आज भी भँवरे की गुंजार से मचलते हैं।

बोल आज तू भी के जिंदा है अभी,
खिलखिला के हंस के मुसकुरायेंगे तेरे संग और कई।
नाच आज तू भी इस पुरवाई के संग,
झूमेंगे कुछ और भी देख तेरी ये उमंग।

डुबो दे आज ये ऊँचे महल अपनी मन सागर की लहरों तले,
भीगो दे ये सुखा शहर लगा आज अपने आप को गले।

बोल आज के तू  भी के जिंदा है अभी.....

3 comments:

Sumeet's said...

i like ur work ma'm ...keep it up... n also keep me updated about ur new post's ...

Zen99 said...

what about English?

sanchita said...

as.. gud as..u :) superliked..it.. :) muaaah