लंदन वॉटरलू के एक होटल में मिड्ल क्लास परिवारों की तीन लड़कियां।
आई हैं अपने अपने काम से। एक सुबह कोन्फेरेंस करती है, एक टॉक देती है, एक कोर्स पढ़ाती है। शाम को मिल खूब गपियाती हैं ये तीन लड़कियां। "अबे गोरों का summer इतना ठंडा क्यूँ है?" रेड वाइन से काम चलाती हैं ये तीन लड़कियां। दाल-भात खोजती, मैगी बनाती हैं, ये तीन लड़कियां। आई हैं अपने-अपने काम से लंदन, ये तीन लड़कियां। पटना के किस्से, दिल्ली की गलियां बतियाती हैं, ये लड़कियां। जोर जोर से ठहाके लगाती हैं ये लड़कियां। साउथबैंक पे स्कर्ट उड़ाती हैं ये लड़कियां। मेक्सिकन खाने में राजमा-चावल देख, खुश हो जाती हैं ये लड़कियां। एक दूसरे को देख मुस्कुराती हैं ये लड़कियां। आई हैं अपने-अपने काम से लंदन ये तीन लड़कियां। "क्या सब गोरे काला, सलेटी, नीला पहने रहते हैं!!" खुद रंगो में नहाती हैं ये लड़कियां। "लगता है आजकल ये बैग चले हुए हैं।" कहती, अपना झोला फिराती हैं ये लड़कियां। खड़े हो वेस्टमिनिस्टर ब्रिज पे अपने बचे पौंड का हिसाब लगाती हैं ये लड़कियां। आई हैं अपने-अपने काम से लंदन ये तीन लड़कियां। सुबह सुबह मीटिंग्स में भागती, विक्टोरिया स्टेशन पे दौड़ लगाती हैं ये लड़कियां। अपनी टॉक खत्म कर, चाय की आस लगाती हैं ये लड़कियां। शाम को फिर कहीं पब में डेरा डाला जायेगा, फिर प्लान बनाती हैं ये लड़कियां। सुबह मेहनत कर, शाम को ख़्वाब सजाती हैं ये लड़कियां। आई हैं अपने-अपने काम से लंदन ये तीन लड़कियां। |
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Thursday, January 28, 2016
तीन लड़कियां
गाली
संघी मेरे लिये गाली नहीं है, रंडी भी गाली नहीं है। नाही आप (टार्ड) या कांग्रेसी होना गाली है। यहाँ तक के भक्त और महाभक्त होना भी गाली नहीं है। गाली है तो ये के मैंने किसी का जानबूझ के दिल दुखाया। गाली है तो ये के मैंने किसी का गलत लाभ उठाया। गाली है तो ये के मैं दिखावे पे पैसा खर्च करती हूँ, और अपनी काम-वाली का कप टूटने पे पैसा काट लेती हूँ। गाली है तो ये के मैं अपने से दुगनी उम्र के ड्राइवर को डांटने का हक़ रखती हूँ।
गाली है तो ये के मैं मॉल, हवाईजहाज़ो में जो-मांगे दाम देती हूँ, और सड़क पे भाजी वाले और रिक्शा वाले से मोल-भाव करती हूँ। गाली है तो ये के मैं अपनी गर्ल फ्रेंड या बॉय फ्रेंड पर गुस्सा आने पर हाथ उठा देती हूँ। गाली है तो ये के मैं अपने दोस्तों से काम निकलवा के, उनके जरुरत के समय कटने लगती हूँ। गाली है तो ये के मैं समय देके लेट आती हूँ। गाली है तो ये के मैं कमिट किया गया काम समय पर नहीं करती। गाली है तो ये के मैं अपनी सेहत का ख्याल नहीं रखती। गाली है तो ये के मैं दुसरो को गाली देती हूँ।
गाली किसी के सामने सर झुकाना नहीं है, गाली किसी का गला काट लेना है!#नेमटैगसेऊपरउठनाहोगा #स्टॉपटैगिंग
मैं कुछ ज्यादा ही खुश हूँ!
एक क्लास से दूसरी क्लास साईकल चलाते
मैं बहुत खुश हूँ।
कभी दो, कभी बीस बच्चों को एक-साथ पढ़ाते
मैं बहुत खुश हूँ।
घर वापस आ दाल-सब्जी, रोटी बनाते
मैं बहुत खुश हूँ।
कभी बुआ, कभी मौसी से फ़ोन पे बतियाते
मैं बहुत खुश हूँ।
माँ-पापा, बहन के साथ फ़ोन पे खिलखिलाते
मैं बहुत खुश हूँ।
वीकेंड पे घर-सफाई, धोबी-घाट लगाते
मैं बहुत खुश हूँ।
कम चीनी की चाय पीते, आगे घूमने के प्लान बनाते
मैं बहुत खुश हूँ।
उसका हाथ पकड़ बैठते, आँखों ही आँखों में मुस्कुराते
मैं बहुत खुश हूँ।
रोज़ दस बारह घंटे काम कर, आगे की छुट्टी बचाते
मैं बहुत खुश हूँ।
अपने गांव को याद कर, घर आने के सपने सजाते
मैं बहुत खुश हूँ।
अपने घर की लड़कीयों को पढ़ते, और लकड़ो को घर का काम बटाते देख
मैं बहुत खुश हूँ।
अपनी काकी को परदे से निकलते, बेबे को करवाचौथ ठुकराते देख
मैं बहुत खुश हूँ।
रोज़ थोड़ा सा खुद को बदलते, थोड़ा आसपास बदलते देख
मैं बहुत खुश हूँ।
खुद पंख फैलाते, थोड़ा दुसरो को पंख लगाते
मैं बहुत खुश हूँ।
- एक बेहद खुश लड़की।
मैं बहुत खुश हूँ।
कभी दो, कभी बीस बच्चों को एक-साथ पढ़ाते
मैं बहुत खुश हूँ।
घर वापस आ दाल-सब्जी, रोटी बनाते
मैं बहुत खुश हूँ।
कभी बुआ, कभी मौसी से फ़ोन पे बतियाते
मैं बहुत खुश हूँ।
माँ-पापा, बहन के साथ फ़ोन पे खिलखिलाते
मैं बहुत खुश हूँ।
वीकेंड पे घर-सफाई, धोबी-घाट लगाते
मैं बहुत खुश हूँ।
कम चीनी की चाय पीते, आगे घूमने के प्लान बनाते
मैं बहुत खुश हूँ।
उसका हाथ पकड़ बैठते, आँखों ही आँखों में मुस्कुराते
मैं बहुत खुश हूँ।
रोज़ दस बारह घंटे काम कर, आगे की छुट्टी बचाते
मैं बहुत खुश हूँ।
अपने गांव को याद कर, घर आने के सपने सजाते
मैं बहुत खुश हूँ।
अपने घर की लड़कीयों को पढ़ते, और लकड़ो को घर का काम बटाते देख
मैं बहुत खुश हूँ।
अपनी काकी को परदे से निकलते, बेबे को करवाचौथ ठुकराते देख
मैं बहुत खुश हूँ।
रोज़ थोड़ा सा खुद को बदलते, थोड़ा आसपास बदलते देख
मैं बहुत खुश हूँ।
खुद पंख फैलाते, थोड़ा दुसरो को पंख लगाते
मैं बहुत खुश हूँ।
- एक बेहद खुश लड़की।
नये त्यौहार
एक समय की बात है एक प्रेमी युगल पार्क में सैर कर रहा था। तभी कहीं से कुछ "भारतीय संस्कृति"
के ठेकेदार सामने आ जाते हैं। प्रेमी युगल सकपका जाता है और घबराहट में लड़का बेहोश हो जाता है। ठेकेदार लड़की को बेहूदे सवालों से घेर लेते हैं। लड़की डट के जवाब देती है और उन्हें अपने काम-से-काम रखने को कहती है। अपने बेहुदे सवालों के सीधे-सपाट जवाब सुनने पर ठेकेदार तिलमिला जाते हैं और लड़की के ऊपर "भारतीय संस्कृति" क्रप्ट करने का इलज़ाम लगाते हैं। लड़की के तरफ से कोई घबराहट ना देख ठेकेदार अपनी छोटी सोच का परिणाम देते हुए लड़की के घर में चुगली करने की धमकी देते हैं। लड़की अपने पिता को स्वयं फ़ोन लगाती है और पुरे मामले की जानकारी देती है। अब ठेकेदार गुस्से में तिलमिलाते हुए जाते जाते लड़की के सर पे डंडे से वार करते हुए भाग जाते हैं। थोड़ी देर बाद जब लड़के को होश आता है तो वो अपनी प्रेमिका को खून में लथपथ पाता है। अपनी बहादुर प्रेमिका की ये हालात देख लड़का प्रण लेता है के वो उसे मरने नहीं देगा। आस-पास लोग इक्कठे हो जाते हैं, भीड़ में से कोई निकल के लड़की की नब्ज चेक करता है, तो लड़की को मरा बताता है। लड़का अपने प्रण पे अडिग रहता है, और लड़की का सर अपनी गोद में रख बैठा रहता है। शाम से सुबह हो जाती है, लेकिन लड़का है के उठने का नाम नहीं लेता। वो बिना खाए-पिए तीन दिन तक लड़की की लाश अपनी गोद में लिए बैठा रहता है। ऐसी लगन और महोब्बत देख कर "भारतीय संस्कृति" के ठेकेदारो के दिमाग का गोबर भी जलने लगता है। लड़के की लड़की की तरफ ऐसी प्यार और श्रद्धा देखा कलियुग के देवता स्वयं प्रकट होते हैं और लड़की को वापस जीवन दान देते है। तब से आज-तक लड़की की लाजवाब बहादुरी और लड़के की बेइन्तिहां महोब्बत को दुनिया याद करती है, और उसे सेलिब्रेट करने के लिए लड़कियाँ साल में तीन दिन अपनी बहादुरी का परिचय देती हैं और लड़के अपनी मोहोब्बत का। ऐसे बहादुर प्रेमिका पाने के लिए लड़के बिना खाए-पिए तीन दिन अपने सपनो की बहादुर लड़की का ध्यान करते हैं। जो लड़के सात साल लगातार ये व्रत करते हैं उन्हें उनके सपनो की बहादुर लड़की मिलती है। लड़कियाँ इन तीन दिनों में अपनी बहादुरी का परिचय देते हुए अपने घर-वालों और समाज को अपने-अपने प्रेमियों से परिचय करवाती हैं और "भारतीय संस्कृति" के ठेकेदारों का मनोबल डाउन करती हैं। इस दिन को "बहादुर-महोब्बत" के नाम से पुरे भारत वर्ष में धूम-धाम से नवंबर के खुशनुमा-रूमानी महीने में मनाया जाता है। |
Friday, March 6, 2015
चरित्रहीन
ऐसे ही रात-दिन, बेटेम, बेमतलब घूमूंगी
ऐसे ही गंदे गंदे कपड़े पहन के, अधनंगे
हँसूंगी, जोर जोर से, बेशर्मी से खिलखलाऊँगी
और जाउंगी साथ और अकेले, जो करेगा मन
जैसा करेगा मन।
समंध बनाऊँगी, जायज़, नाजायज़
जिससे चाहूंगी।
तेरी रिच संस्कृति का ढोल बजाउँगी।
लज़्ज़ा की फिरकी बना के घुमाऊँगी
फ़िरूँगी चरित्रहीन।
समाज को तूने नाम दिया, तेरा होगा। थू।
शहर को तूने बनाया, तेरा होगा। थू।
देश भी तू रख। थू।
कानून भी रख। थू।
रख तू अपने पास!! रख।
ये धरती समूची मेरी है।
ये आसमान समूचा मेरा है।
मैं चलूंगी। मैं उड़ूँगी। मैं फ़िरूँगी।
चरखी बन के। मदमस्त।
देख तो। देख। पास तो आ।
आ। आ। आ।
जहरीला फूल हूँ, सूंघ भी नहीं पाओगे,
एटम बम हूँ, हाथ भी ना लगा पाओगे
हो जाएंगी छित्तर-बित्तर तेरी आँतड़ियां
तेरी आँख, तेरी जीभ, तेरी उँगलियाँ
धरती की धुल में।
Sunday, February 1, 2015
'"अच्छी" लड़कियां
वो २२ साल कि इतालियन लड़की अकेली इंडिया आई थी। रमोना को भारतीय लड़के बहुत पसंद थे और उसे अपनी पसंद बताने में कोई झिझक ना थी। वो अब तक आधी दुनिया घूम चुकी थी, बार-या-कैफ़े में काम कर अपना घुमाई खर्च निकालती और बेझिझक अपनी ब्राउन लड़को कि चाहत को एक्सप्रेस करती और मैं बस उसे एकटक सुनती। मैं उस समय अठरह साल कि थी, और मुझे कहीं ख्याल भी ना थ के उसकी रोमांचक बाते सुनते सुनते एक दिन मैं उसकी तरह एकदम अकेले दुनिया घूमूंगी।
रमोना उन लोगो में से थी जो शायद बहुत थोड़े से समय में आपकी जिंदगी का बड़ा सा हिस्सा बन जाते है। ठीक दस साल हो गए हैं मुझे उससे से मिले, उसकी याद आज भी उतनी ही ताज़ा है और शायद हमेशा रहेगी। मेरे जीवन के सफर को उस बित्ती भर कि, चहकती, मचलती लड़की ने एक अलग दिशा में मोड़ दिया था। रमोना का और मेरा साथ महज़ दस दिन का था, वो फिरती मदमस्त और मैं उसे मुह खोले ताकती रहती। जब वो चली गयी तो ना कोई फ़ोन-कॉल, शायद एक-दो ईमेल हुए होंगे फिर वो भी खत्म। लेकिन वो मुझे अपना एक हिस्सा दे गयी, अपनी रूह दे गयी, अपनी एक आज़ादी का टुकड़ा दे गयी। वो चली गयी लेकिन उसकी आज़ादी कि महक रह गयी।
रमोना से मेरी मुलाकात पूना में हुई, वो मेरे कुछ दोस्तों कि दोस्त थी और हम अक्सर उसके कैफ़े के टाइम के बाद यूँही बतियाते या घूमने निकलते। एक शाम हमने एम-जी रोड घूमने का प्लान बनाया, और रमोना को कैफ़े से लेने चले गए। रमोना को मेरे दोस्तों ने सब हिंदी गालियां सीखा दी थी, वो हमेशा हमारा स्वागत हिंदी में गलिओं कि बौछार से करती और फिर अपनी इटालियन एक्सेंट में कहती, "मेरी जान क्या चाहिए!" जवाब में लड़के दोस्त हमेशा कुछ ना कुछ ऐसा मांगते के वो कहती, "एव्री डॉग हस इट्स डे", और खिलखाले हुए उन्ही के कंधो पे हाथ रख मस्त चलती।
हमने उसे अपने एम-जी रोड घूमने का प्लान बताया तो वो फट से तैयार हो गयी, और बोली वो पूरे दिन काम करके थक गयी है और शावर ले के ही हमारे साथ चल सकती है। अब हमे पहले उसके घर जाना पड़ता और हमारी खाली-पिली कसरत हो जाती, तो मेरे दोस्त ने तपाक से कहा, "तुम तो ऐसे ही बहुत खूबसूरत हो, तुम्हे नहाने की कोई जरुरत नहीं।" मैंने भी कहा, "चलो ना बाद में आके नहा लेना।" यूँ दोस्तों कि जिद्द के आगे झुक जाना मेरे लिए बहुत छोटी बात थी। अपनी बड़ी से बड़ी इच्छाओं को औरो कि अपील के सामने भुला देना कोई बड़ी बात नहीं थी, फिर ये महज़ 'ना-नहाने' कि बात थी।
लेकिन उसने शायद अपनी इच्छाओं को सब से पहले रखना सीखा था, चाहे वो इच्छा अदनी सी क्यूँ ना हो। उसने कहा के उसका नहाना और सुन्दर दिखने में कोई कनेक्शन नहीं है, सुन्दर तो वो दस दिन ना नहाये तो भी दिखेगी। उसकी नहाने कि इच्छा से हमारा कोई तालुक नहीं है, और अगर हमें देर हो रही है हंम जाएं, वो बाद में आ जाएगी। इतनी हिम्मत! इतनी सीधी बात! कोई लड़की अपनी इच्छाओं को लेकर इतनी क्लियर कैसे हो सकती है, इतनी अस्सेर्टिव कैसे हो सकती है, मैं फिर एकटक थी। वो कभी कोई काम औपचारिकता वश नहीं करती, हम भारतीय, (लड़कियाँ खासकर) औरो की बात मान, अपनी जरूरते भूल जाती हैं, और फिर कोसते हैं, खुद को भी और दोस्तों को भी। ना औरो के हो पाते हैं, ना खुद के। और फिर वही पुरानी ब्लेम गेम, "मैंने तुम्हारे लिए ये किया, वो किया, फलाने के लिए ये करा, ढीमके के लिए ये करा" उसने क्या करा। अगर नहीं जी है तो मत करो, और करो तो फिर जाताना कैसा?
………
वो एक कमरे के माकन में रुकी थी, उसमे कमरे में उसका बैगपैक, और एक स्लीपिंग बैग भर था। वो सीधे गुसलखाने में घुस गयी, और ५ मिनट में तोलिया बाँध के निकली और फिर तोलिया खोल अपने गीले बाल झड़ने लगी। वो मेरे सामने थी, सिर्फ तोलिये में, वो भी सर पे। वो हमसे बात करती रही और कपड़े पहनती रही, उसके हाव-भाव में कपड़ो का होना या ना होना कोई फर्क नहीं डाल रहा था। लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं था, मेरा दोस्त जरुरत से ज्यादा शांत था, और मुझे उसकी आवाज़ सुननी बंद हो गयी थी।
वो मेरी हीरो थी। मेरा लक्ष्य इस जीवन में गाड़ी-बंगला बनाना नहीं, अपने शरीर के साथ, अपने इमोशन्स के साथ इतना कम्फ़र्टेबल होना था।
रमोना उन लोगो में से थी जो शायद बहुत थोड़े से समय में आपकी जिंदगी का बड़ा सा हिस्सा बन जाते है। ठीक दस साल हो गए हैं मुझे उससे से मिले, उसकी याद आज भी उतनी ही ताज़ा है और शायद हमेशा रहेगी। मेरे जीवन के सफर को उस बित्ती भर कि, चहकती, मचलती लड़की ने एक अलग दिशा में मोड़ दिया था। रमोना का और मेरा साथ महज़ दस दिन का था, वो फिरती मदमस्त और मैं उसे मुह खोले ताकती रहती। जब वो चली गयी तो ना कोई फ़ोन-कॉल, शायद एक-दो ईमेल हुए होंगे फिर वो भी खत्म। लेकिन वो मुझे अपना एक हिस्सा दे गयी, अपनी रूह दे गयी, अपनी एक आज़ादी का टुकड़ा दे गयी। वो चली गयी लेकिन उसकी आज़ादी कि महक रह गयी।
रमोना से मेरी मुलाकात पूना में हुई, वो मेरे कुछ दोस्तों कि दोस्त थी और हम अक्सर उसके कैफ़े के टाइम के बाद यूँही बतियाते या घूमने निकलते। एक शाम हमने एम-जी रोड घूमने का प्लान बनाया, और रमोना को कैफ़े से लेने चले गए। रमोना को मेरे दोस्तों ने सब हिंदी गालियां सीखा दी थी, वो हमेशा हमारा स्वागत हिंदी में गलिओं कि बौछार से करती और फिर अपनी इटालियन एक्सेंट में कहती, "मेरी जान क्या चाहिए!" जवाब में लड़के दोस्त हमेशा कुछ ना कुछ ऐसा मांगते के वो कहती, "एव्री डॉग हस इट्स डे", और खिलखाले हुए उन्ही के कंधो पे हाथ रख मस्त चलती।
हमने उसे अपने एम-जी रोड घूमने का प्लान बताया तो वो फट से तैयार हो गयी, और बोली वो पूरे दिन काम करके थक गयी है और शावर ले के ही हमारे साथ चल सकती है। अब हमे पहले उसके घर जाना पड़ता और हमारी खाली-पिली कसरत हो जाती, तो मेरे दोस्त ने तपाक से कहा, "तुम तो ऐसे ही बहुत खूबसूरत हो, तुम्हे नहाने की कोई जरुरत नहीं।" मैंने भी कहा, "चलो ना बाद में आके नहा लेना।" यूँ दोस्तों कि जिद्द के आगे झुक जाना मेरे लिए बहुत छोटी बात थी। अपनी बड़ी से बड़ी इच्छाओं को औरो कि अपील के सामने भुला देना कोई बड़ी बात नहीं थी, फिर ये महज़ 'ना-नहाने' कि बात थी।
लेकिन उसने शायद अपनी इच्छाओं को सब से पहले रखना सीखा था, चाहे वो इच्छा अदनी सी क्यूँ ना हो। उसने कहा के उसका नहाना और सुन्दर दिखने में कोई कनेक्शन नहीं है, सुन्दर तो वो दस दिन ना नहाये तो भी दिखेगी। उसकी नहाने कि इच्छा से हमारा कोई तालुक नहीं है, और अगर हमें देर हो रही है हंम जाएं, वो बाद में आ जाएगी। इतनी हिम्मत! इतनी सीधी बात! कोई लड़की अपनी इच्छाओं को लेकर इतनी क्लियर कैसे हो सकती है, इतनी अस्सेर्टिव कैसे हो सकती है, मैं फिर एकटक थी। वो कभी कोई काम औपचारिकता वश नहीं करती, हम भारतीय, (लड़कियाँ खासकर) औरो की बात मान, अपनी जरूरते भूल जाती हैं, और फिर कोसते हैं, खुद को भी और दोस्तों को भी। ना औरो के हो पाते हैं, ना खुद के। और फिर वही पुरानी ब्लेम गेम, "मैंने तुम्हारे लिए ये किया, वो किया, फलाने के लिए ये करा, ढीमके के लिए ये करा" उसने क्या करा। अगर नहीं जी है तो मत करो, और करो तो फिर जाताना कैसा?
………
वो एक कमरे के माकन में रुकी थी, उसमे कमरे में उसका बैगपैक, और एक स्लीपिंग बैग भर था। वो सीधे गुसलखाने में घुस गयी, और ५ मिनट में तोलिया बाँध के निकली और फिर तोलिया खोल अपने गीले बाल झड़ने लगी। वो मेरे सामने थी, सिर्फ तोलिये में, वो भी सर पे। वो हमसे बात करती रही और कपड़े पहनती रही, उसके हाव-भाव में कपड़ो का होना या ना होना कोई फर्क नहीं डाल रहा था। लेकिन हमारे साथ ऐसा नहीं था, मेरा दोस्त जरुरत से ज्यादा शांत था, और मुझे उसकी आवाज़ सुननी बंद हो गयी थी।
वो मेरी हीरो थी। मेरा लक्ष्य इस जीवन में गाड़ी-बंगला बनाना नहीं, अपने शरीर के साथ, अपने इमोशन्स के साथ इतना कम्फ़र्टेबल होना था।
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प्रियंका कि बात रह रह कर परेशान कर रही थी, "जीजी कुछ ना कुछ तो लड़कियों में भी कमी होगी, जो ऐसे लड़को को बर्दाश्त करती हैं।" सही बात है ब्रेकअप क्यूँ नहीं करती, अगर लड़का वॉयलेंट है या पसंद का नहीं है। मैं सोचती रही....... क्यूँ नहीं करती, क्यूँ पढ़ी लिखी समझदार होते हुए भी सहती जाती हैं?
लड़कियों का जरुरत से ज्यादा भावुक होना एक तरफ.…पर क्या भावुक होना इतनी बड़ी कमजोरी है, या कुछ और?
लड़कियों का जरुरत से ज्यादा भावुक होना एक तरफ.…पर क्या भावुक होना इतनी बड़ी कमजोरी है, या कुछ और?
कल मैंने मरिसा से उसके ब्रेकअपस के बारे में पूछा, उसने कुछ यूँ मेरी आँख खोली, "मेरा जब भी ब्रेकअप हुआ तो जी खोल के रोई, माँ के पेट में सर छुपा के, पापा को सब बताया। रोड पे खड़े होके चीखी-चिल्लाई और आते-जाते लोगो तक से सहानुभूति ले ली। दोस्तों के साथ रात भर वाइन उड़ेली। घरवालों, दोस्तों, पड़ोसियों यहाँ तक के अजनबियों से सहारा मिला। कभी आसान नहीं था, कभी आसान हो ही नहीं सकता। लेकिन ये जरूर पता था के जितना दुःख ब्रेकअप में है, उससे कई गुना ज्यादा साथ में होता और होता रहता।"
लेकिन हमारे यहाँ तो दस में से आठ लड़कियां तो अफ़ेयर ही छुपाना पड़ता है, ब्रेकअप कैसे बतायें? और ख़ुशी तो छुप के अकेले में पलक झपकते बीत जाती हैं, गम अकेले नहीं बीतता। फिर हम अपने आप से लड़ते हैं, और अकेलेपन में ज्यादातर उसी आदमी के सहारे कि जरुरत महसूस करते हैं, जिससे भाग रहे होते हैं। और फिर और गहरे फंस जाते हैं, अपने ही बनाये चक्र्व्यू में। और वो डरावना "अकेलापन" जो दौड़ता है काट खाने को। और जो रह रह के सांस रोकता है, उसका क्या?
कितना आसान है हमारे देश में, अगर लड़की घर से दूर दूसरे शहर में काम करती है, अकेलेपन को हराना? जब रात को अकेले में रह रह रूकती हैं सांस, जब पुरानी यादे धीरे धीरे घोटती हैं गला। तब कितना मन करता है दौड़ जाएँ सड़क पर अकेले, और भर ले फेफड़ो में खूब सारी ठंडी ठंडी हवा। स्टार्ट करें बाइक और ले चले शिमला! जब तक चलाते रहे तब तक हाथ सुन्न ना हो जाएँ। ज्यादा नहीं तो इंडिया गेट तक तो चले ही जाएँ। लेकिन ये क्या, ये तो दिन छिप गया। अकेले जाऊं? या किसी को बुला लूँ? कपड़े भी तो बदलने पड़ेंगे, फिर वापस आते आते देर हो गयी तो। फिर बाहर जाना, ठंडी हवा कम हिसाब-किताब ज्यादा लगता है।
और दुनिया भर के जुज़ॅमेंट्स का क्या? इसको पता चल गया तो, उसने उसको बता दिया तो, वो क्या बोलेगे, ये क्या सोचेगा, पता नहीं किस-किस को बताएगा, मम्मी-पापा तक बात पहुँच गयी तो, ताऊ जी का लड़का भी तो वहीँ काम करता है, उसकी माँ मेरी बुआ कि सहेली है। वो फोटो का क्या? होने-वालों को भेज दी तो? और जाने कितनी ही बेफाल्तू कि इमेजिनरी चिंताएँ। और सॉलिड जजमेंट्स, "वो तो बड़ी फ़ास्ट है।" "ऐसी लड़कियों के साथ ऐसा ही होता है।" "ऐसी लड़कियाँ घर थोड़े ही बसाती हैं।" "निभाना थोड़े ही आता है इन्हें, थोड़ा बहुत तो कम्प्रोमाईज़ करना पड़ता है।" "ज्यादा फेमिनिस्ट बनोगी तो अकेली ही रहोगी।"
मन तो करता है "*#@$%^&*@!><@#$@"
मन तो करता है "*#@$%^&*@!><@#$@"
काश हम भी रो पाते, यूँ खुल कह पाते अपने ब्रेकअप कि कहानी। जमा करते ब्रेकअप वीडियोस एक ही बक्से में, और हँसते रोते अपने-परायों के साथ। सोच रही हूँ भारत आके ब्रेकअप रीहैब खोल लूँ। ब्रेकअप मंत्र "दुनिया भर को दुःख बांटा, और जज करने वालों को बोला टाटा।"
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